गंगा- रेखा दुबे



 गंगा की आंखों में पानी की गहराती नदिया गंगा के निर्मल जल से भी स्वच्छ और निर्मल लग रही थी।गंगा के ओंठ खुले और थर्राते पत्ते की तरह कांपे फिर अचानक से भिचते चले गए भिंचे हुए मुख पर  तीव्रता के वेग से एक ठहरी ओर गंभीर आवाज गूंजी,'अक्षम्य अपराध है यह तुमने मेरे तन  की दहलीज पर पांव रखने के पहले सोचा तो होता कि गंगा की जिन लहरों से खेलने के लिए  तुम आगे बढ़े हो उसका विनाशकारी स्वरूप बड़ा भयानक होता है जिस अविरल बहती धारा के बीच तुमने गंगा का वही सौम्य रूप देख लिया जिसमें हर आने जाने वाला अपने अच्छे और गंदे दोनों ही तरह के हाथ धोता चलता है पर तुम शायद गंगा के उस रौद्र रूप को देखना भूल गए जब अपने विकराल रूप में वह विनाश का तांडव करती है तुम शायद भूल गए कि अगर वह किनारे के पौधों को सींचना जानती है तो बड़े-बड़े दरख़्तों को गिराना भी जानती है!आज के बाद तुम हमेशा याद रखना सत्यम..'हर औरत चालू माल नहीं होती तुम्हारा धन, वैभव ,संपत्ति पद मुझे तुम्हारी तरफ तनिक भी आकर्षित नहीं करते' और तुम्हारी भुजंग जैसी यह दो आंखें हैं ना इन्हें नीचा ही रखो और हां चलते चलते एक बात और कहना चाहूंगी आज के बाद अपने नागफनी जैसे हाथों पर सदा काबू ही रखना कहते हुए गंगा ने अपने खुले हुए जुड़े के बिखरे बालों को पुनः लपेटकर संवारते हुए क्लचर को जुड़े पर कस लिया फिर बड़ी ही लापरवाही से अपना पर्स उठा कर चल दी गंतव्य की ओर।


 



रेखा दुबे
विदिशा मध्यप्रदेश



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