मन की तपन -रेखा दुबे


विवेक शून्य होकर आज अकेली कमरे में बैठी हूं। आज लगता है जैसे मेरा मन कांच के छोटे-छोटे टुकड़ों में टूट कर बिखर गया हो और हर टुकड़े में जो सूरत  दिखती है वह अजनबी जान पड़ती है कई वार हम जिंदगी के ऐसे मोड़ पर आकर खड़े हो जाते हैं जब हमें एक रास्ता चुनना पड़ता है  और दूसरे को छोड़ना हमारे लिए नामुमकिन होता है । यह दिन, यह समय ,यह पल हर इंसान की जिंदगी में एक बार जरूर आता है। उसके रूप भले ही अलग-अलग हों चाहे वह ममता की छाया प्रदान करते मां- बाप,भाई -बहन, प्रेमी- प्रेमिका, पति -पत्नी दोस्त या सगे- संबंधी जो मन के तारों से  जुड़े रहते हैं पर पता नहीं कब  हमारी प्रीत की डोर टूटती है और हम दो भागों में विभक्त हो जाते हैं मन मैलिश हो जाता है और हम अपने प्रिय व्यक्ति के संग बिताए उन खुश-नुमा पलों को एक पल में भूल कर उसकी गलतियों को याद करने लगते हैं और जीवन की एक ऐसी अंक-सूची तैयार करते है जिसमें रेडमार्क ही ज्यादा  दिखते हैं। उसकी अच्छाइयों का तराजू धीरे-धीरे इतना ऊपर चला जाता है कि चाह कर भी हम उसे देख नहीं पाते और तराजू का एक सिरा धरातल पर बैठकर हमारे साथ अपनी कामयाबी का जश्न मनाता है। और फिर हम सामने वाले के दिये जख्मों को कुरेद-कुरेद कर नासूर बना लेते हैं।ओर उनमें से बहता हुआ दर्द हमें आदर्श रहित कर हमारी सामाजिक चेतना को लुप्त कर देता है।
 यह सोचते हुए जब मैं जाकर बालकनी में खड़ी हुई एक हवा  का तेज झोंका मेरे मन की तपन को कम करता हुआ मेरे अंग प्रत्यंग को सहला गया मैं सोचने लगी ईश्वर ने कितनी सुंदर सृष्टि बनाई है! बेश-कीमती पेड़ पौधे ,यह स्वच्छंद विचरण करते हुए पक्षी ,कलरव करते हुए झरने, मादक लहरों से बलखाती नदियां ,मौजों से जूझते टीले ,नीले अंबर पर गहराते बादलों  से झांकता चाँद,मदहोश कर देने वाली किरणों की चंचलता, किरणों के दमकते सौंदर्य से चमकती धारा,वनों की गहन खामोशी दूर-दूर तक फैला है इस अपूर्व सुंदर सृष्टि का सौंदर्य सब अपने में लीन हैं किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं है मौन मूक सब अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर हैं।
फिर हम सब क्यों वेबस से नचाने वाले नट की  कठपुतली की तरह नचा रहे है?।पता नहीं क्यों हम छोटे से जीवन को महासंग्राम में बदल देते हैं?.. ओर बैठ जाते है अहंकार की चादर ओढ़ कर  टूटे हुए घर.व्यथित मां-बाप बच्चों के आगे कैसे वेबस नजर आते हैं।आंखों में वृद्धा अवस्था की बेबसी और लाचारी अलग समझ में आती है. कितनी विकट समस्या है उनके लिए अगर एक बेटे का दरवाजा खुलता है तो दूसरे का बंद हो जाता है।बेटी पराई अमानत है, एक-दो दिन को आई और चली गई।उनके मन में एक भाव रहता है अपने  मन का दुख या समस्या किससे कहें पहरे देकर लगाया विछोना सुखदाई कैसे हो सकता है?..जीवन का अरमान सभी यही रहता है कि स्नेह का सँवल बना रहे भौतिक चीजें चाहे कितने भी प्राप्त हो जाएं  पर परिवार की एक-सूत्रता इंसान की खुशी को दोगुणित कर देती है।
इस गहन सोच में वाणी मौन थी पर मन के विचार मुखरित हो उठे क्या घर के एक या दो सदस्य पूरे के पूरे घर या समाज को एकसूत्रता में पिरो सकते हैं?.. मन बोला नहीं मां-बाप से लेकर बच्चे ओर बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक को अपनी सोच बदलनी होगी!.क्योंकि?..जीवन एक ऐसी अबूझ पहेली है जिसका कोई निश्चित नियम नहीं है।
किंतु इतना तो सत्य है कि जीवन में हम जैसा बोएंगे वैसा काटेंगे इसलिए अपनी सोच अच्छी रखते हुए अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दें।
घर से अपना चरित्र आईने की तरह लेकर चलें तो समाज की  पाठशाला में सब कुछ साफ-साफ नजर आएगा ओर तब हम समझ सकेंगे कि हमारी जरा सी नासमझी हमारे अपनों को हमसे कितनी दूर कर देती है हम जो कहते हैं ,सुनते हैं,ओर सुनाते उन बातों का  प्रभाव हमारी आने वाली पीढ़ी को भी भुगतना पड़ता है परिवार समाज से अलग हुए मां- बाप के कारण उसकी पहचान और दायरा सिर्फ और सिर्फ माता -पिता तक ही सीमित रह जाता है  यह बात सही है कई कि की वार रिश्ते निभाते हुए हमें कई विषम परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है । 
जज्बातों के चलते कई गलत शब्द या व्यवहार हमें पीड़ा पहुंचाते हैं दिल और दिमाग आवेश के चरम पर होता है और मन हर हाल में उस व्यक्ति से बगावत करना चाहता है लेकिन इसके साथ यह सोचना जरूरी है इस संबंध से इस जीवन से अकेले आप ही नहीं बंधे हैं इससे बंधे हैं कई रिश्ते जो   विरोध करते ही विभिन्न भागों में विभक्त हो जाते है यह सोचते-सोचते मैंने अपने दिमाग को झटका दिया और यथा स्थान आकर बैठे कर अपनी कलम को आंसुओं  से सींच कर कांच के टुकड़ों से अपने जख्मों को सिलने लगी पैनी धार का दर्द तेज था और सिलाई से सलवटे आना वाजिब था पर दिल दिमाग ओर मन के आगे से धुंध हट चुकी थी और मैं सोच रही थी हे ईश्वर काश तूने मुझे अपनी अनमोल सृष्टि में धतूरे का फूल ही बना दिया होता तो कम से कम इस बियावान वन में एक नट की तरह नहीं नाच रहा होता  घने जंगल में खोफजादा  होकर नहीं भटक रहा होता जिन संबंधों को हम बहुत आत्मीयता से निभाते हैं अक्सर सबसे ज्यादा कष्ट भी उन्हीं से होता हैं क्योंकि जब भी कोई हमारी बेश कीमती चीज खोती है तो हमे उसके खोने का उतना ही ज्यादा दुख होता है कुल मिलाकर रिश्तों की अहमियत हमारी खुशियों का आधार बनी रहती है अतः इन्हें सम्हालकर रखें।
रेखा दुबे
विदिशा मध्यप्रदेश



एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ