राजेंद्र यादव - जन्म जयंती 28अगस्त - संस्मरण
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हिन्दी सुप्रसिद्ध उपन्यासकार , कहानीकार तथा सम्पादक स्वर्गीय राजेन्द्र यादव जी से तीन बार मुलाकात हुई थी। सबसे पहले तो उनके घर पर हुई थी जब हम दो छात्र हिन्दू काॅलेज, दिल्ली के एक कार्यक्रम में मन्नू भंडारी जी को आमंत्रित करने के लिए वहाँ गए थे। राजेन्द्र जी ड्राइंग रूम में बैठे कुछ पढ़ रहे थे। हमने उन्हें नमस्कार किया और उन्होंने हमसे आने का उद्देश्य पूछा था। हमने उन्हें कार्यक्रम के बारे में बताया तो उन्होंने कहा, " हाँ, उस दिन तो मैं फ्री हूँ। " हमें समझ आ गया था कि वे गलती से यह समझ रहे हैं कि हम उन्हें आमंत्रित करने के लिए आए हैं। उस समय उनका चेहरा इतना गम्भीर था और उस पर उनके मुँह में लगे पाईप से उड़ता धुँआ, हमें समझ नहीं आया कि सच बात कैसे बताएं? मेरे मन में आया जब ये हाँ कह रहे हैं तो इन्हें ही क्यों न आमंत्रित कर लिया जाए , पर उसी बीच मेरे साथी ने हिम्मत कर के कह ही दिया कि हम मन्नू जी को आमंत्रित करने आये हैं। मुझे आज भी याद है कि यह सुन कर राजेंद्र जी का चेहरा किस तरह से तटस्थ हो गया था। उन्होंने ड्राइंग रूम के पीछे बीएड रूम की तरफ इशारा किया और कहा , ' जाइये , मिल लीजिये .' साथ ही मन्नू जी को आवाज़ लगा दी थी। अंदर मन्नू जी बीएड पर बैठी कोई किताब पढ़ रही थीं , उन्होंने खामोशी से हमारी बात सुनी और अपनी स्वीकृति दे दी। हम उस कमरे से बाहर निकले तो फिर हमारा सामना राजेंद्र जी से हो गया था। हमने जल्दी से उन्हें नमस्ते की जिसका उन्होंने बड़ा ठंडा उत्तर सर हिला कर दिया और हम वहां से निकल लिए थे।
बैंक में मेरी पोस्टिंग अहमदाबाद में होने के दरम्यान [ तब आयु 28 ] गद्यकार गोविन्द मिश्र जी के कहने पर मैंने अपनी कहानी ' दे गाली ' सीधे हंस में भेज दी थी। वह मेरी लिखी मात्र दूसरी कहानी थी इसलिए भेजते समय मन में काफी संशय था कि कहानी छपेगी या नहीं ? पर , मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा जब 15 दिन बाद राजेंद्र जी का हस्तलिखित पोस्टकार्ड आया कि कहानी पसंद आयी , 6 महीने के भीतर प्रकाशित हो जायेगी . पर वह कहानी दुसरे महीने ही हंस में छप गयी और बहुत प्रशंसित और चर्चित हुई थी। उसके कुछ समय बाद मेरा ट्रांसफर भोपाल ही गया था। राजेंद्र जी एक साहित्यिक कार्यक्रम में भाग लेने भोपाल आये थे , मैं उनसे मिलने के लिए पहुँचा। जैसे ही मैंने नमस्कार करते हुए अपना परिचय दिया राजेंद्र जी ख़ुशी से भर गए और खड़े हो गए। तब उन्होंने कहानी की बहुत तारीफ की वह मेरे लिए बड़ी उपलब्धि थी। तीसरी बार उनसे मिलना दरियागंज , दिल्ली वाले ऑफिस में हुआ था। तब राजेंद्र जी के कार्यालय में फिल्म निर्माता बासु चटर्जी बैठे हुए थे और राजेंद्र के आने में देर थी। मैं काफी देर तक बासु जी से गपियाता रहा था। जब राजेंद्र जी आये तो उन्होंने हम दोनों का स्वागत एक समान गर्मजोशी के साथ किया था। जब तक मैं वहां था वे हम दोनों के साथ समान रूप से ही बात करते रहे थे , ऐसा कुछ नहीं था कि एक तरफ एक नवोदित लेखक है और दूसरी तरफ एक स्थापित फिल्म निर्माता।
संजीव निगम मुम्बई
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