सुनो अभिमन्यु-रेखा दुबे


सुनो अभिमन्यु उठो
उठ कर थोड़ा ओट 
में बैठ जाओ ना,
व्यथित हूँ अपने घावों से
बहुत टीसते है।
नहीं नहीं ठहरो,सुनो!
तुम्हारे ये रिस्ते घाव 
आज भी हरे क्यों है?.
क्या इनकी टीस कम नहीं हुई?
तुम्हारी फैली आंखे अवाक हैं।
तुम्हारे सर्द,स्याह सफेद
चहरे पर विकृति नहीं हैरत है।
हैरत है,धोखे की..
हैरत है,मूल्यों के खोने की..
हैरत है,हर बार के साथ उठती 
वीभत्स हंसी की..
ना ना मुँह ना छुपाओ
ओट में ना जाओ
तब के ओर आज के
जमाने में अंतर नहीं है
आज भी चीर देते है
अपने बातों की धार से
लोग आखेट करते हैं
अपनों की भावनाओं सँग
झूमते,नाचते,गाते हैं,
सहर्ष चिल्लाते है,
अपनों का लहू वहा कर
आज भी जश्न मनाते है,
कौन कह सकता है
तेरे तब लगे जख्मों को 
हमने आज महसूस नहीं किया
तेरे जख्म दिखाई दिये "अभिमन्यु"
पर आज तू मेरी पीड़ा देख,
मेरे जख्म देख
तेरे सौ सौ जख़्म मेरे 
एक एक जख्म के बराबर होंगे
क्यों कि मेरे दिल की
धड़कन की ओट में
तलवार के गहरे घाव नहीं
बातों के जहरीले तीर धसे है
इसीलिए तेरे रिस्ते घावों को देख
मैं मायूस हूँ"अभिमन्यु" 
क्या!अपनों की दी हुईं मार?
सदियों के अंतराल के बाद भी
जस की तस बनी रहती है।
और हमारी मौन जिव्हा
लकवाग्रस्त हो जाती है
सब कुछ महसूस तो करती है
पर उस दर्द को बयाँ नहीं कर पाती है
तब हम अपने घाव छुपाए रहते हैं
ह्रदय की ओट में,
बस तुम्हारे ओर हमारे घाव में
यही फर्क है "अभिमन्यु"



रेखा दुबे
विदिशा मध्यप्रदेश



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