आईना-मीरा

 

हद करती हो तुम भी माँ,

बडा़  मै  इतना  हो  गया ।

लिखता-पढ़ता मन लगाकर,

मस्तिष्क में सब गढ़  गया ।

 

छोटा था तब रोता था ,

स्कूल में भी सिसकता था।

आ जाती जब आया दीदी,

चुपके से छुप जाता था ।

 

लाड़-प्यार में पला-बढ़ा मै,

नखरे मेरे  देखे   जाते ।

दादा-दादी चुपके-चुपके,

माँगे  पूरी  करते   जाते ।

 

मुझमें बसते प्राण सभी के,

मात्र एक  जो  पोता  था ।

बन जाऊँ मै डिप्टी कमिश्नर,

दिल में यही  धड़कता  था ।

 

उन्मुक्त उड़ूँ मै नील गगन में,

शिखरों पर मुझे चढ़ना था ।

कीर्ति-पताका चहुँदिशि फहरे

पापा का जो मै  आईना   था ।

     

स्वरचित एवं मौलिक रचना।

रचयिता-मीरा द्विवेदी "वर्षा"

हरदोई, उत्तर प्रदेश ।

 


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