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हमने अक्सर अपने बुजुर्गों को यह कहते हुए सुना होगा कि आज की जीवन शैली से तो अच्छा हमारा जमाना था । हमारे जमाने में तो ऐसा होता था ,वैसा होता था वगैहरा - वगैहरा । तो चलिए , अतीत के झरोखे से बीते हुए दिनों की कुछ यादें तरोताजा कर लेते हैं। बात सन् 1975 के आस - पास की है। जब हमारे घर में कूलर आया था। उस समय मैं बहुत छोटी थी । तब कूलर किसी - किसी के घर में ही होता था। उसका मॉडल भी आज के कूलर की तरह नहीं था। वह एक साथ दो काम करता था , ठंडी हवा तो देता ही था ,साथ में फ्रिज का काम भी करता था । कूलर के ऊपरी हिस्से में एक आयताकार पट्टी में उसकी पंखुड़ियाँ होती थीं। कूलर के नीचे की तरफ आगे की ओर एक दूसरी पतली आयताकार पट्टी में पानी की बोतल रखने के लिए छोटे -छोटे खाने बने होते थे , जिससे पानी भी ठंडा होता रहता था ।
एक बार गर्मियों में मामाजी सपरिवार हमारे घर आए तो उनका बेटा कूलर को देखकर बोला कि बुआ जी का कूलर तो रोटियाँ बनाता है। दरअसल कूलर की पंखुड़ियां दाएँ - बाएँ इस तरह घूमती थीं लगता था कि हाथ से रोटी बनाई जा रही हों । आज भी जब ये बात याद आ जाती है तो चेहरे पर एक मुस्कान की लहर दौड़ जाती है। मेरी मम्मी बताया करती थीं कि उनके जमाने में पंखे नहीं होते थे । कमरे की छत के ऊपर एक बड़ी सी झालर वाला पंखा होता था जिसमें एक लंबी डोरी बंधी होती थी,जिसे कमरे के बाहर से एक सेवक हिलाता रहता था । हमारे जमाने में तो टेलीविजन भी पूरे मोहल्ले में किसी किसी के घर पर ही होते थे। जिनके घर पर होते थे तो उनके घर सप्ताह में दो तीन दिन तो लोगों का जमवाड़ा लगा ही रहता था। आधा समय तो बूस्टर और एंटीना को सही करने में ही लग जाता था।
मुझे आज भी वो बाइस्कोप याद है जिसके झरोखे में से पूरा चलचित्र देख लेते थे और वो ग्रामोफोन ,जो बैठक के एक कोने में रखा हुआ अपनी अलग ही शान दिखाता था ।दस पैसे पाने के लिए न जाने बच्चों को कितने पापड़ बेलने पड़ते थे, तब कहीं जाकर उन्हें वो मिलते थे। दादी बताती थीं कि 100 रूपए का नोट तो किसी किसी के पास ही होता था । दो रुपए में एक किलो देसी घी आ जाता था । अधिकतर जौ ,बाजरा , मक्का के आटे की रोटी बनती थी । गेहूँ का प्रयोग तो बाद में किया जाने लगा । दिनभर में प्रयुक्त होने वाले आटे को भोर होने से पहले ही हाथ की चक्की द्वारा पीस लिया जाता था । साबुत अनाज ,दलिया सभी घर में ही दले जाते थे । ग्यारह बरस की थी जब उनका विवाह दादा जी के साथ हुआ था। घर ,खेत और गाय भैंस सब संभालती थीं। कहती थीं कि आजकल का काम भी कोई काम है ? ऐसा काम तो हम आज भी चुटकियों में तुम सब से बेहतर कर के दिखा दें। सही तो कहती थीं दादी , आज हम लोग ये सब नहीं कर पाएंगे । कभी - कभी तो सोचकर अचरज होता है कि उस जमाने की महिलाएँ इतना सब करने के उपरांत भी कढ़ाई, बुनाई, सिलाई इत्यादि कार्यों को भी इतनी दक्षता के साथ कैसे कर लेती थीं ! भले ही बेहतर सुविधाएँ न हों पर वो जमाना आज के समय से काफी बेहतर था कम से कम शुद्ध वायु , जल और आहार तो था ।
---- किरण बाला, चंडीगढ़
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