फैसला-किरण बाला

 


माँ ,एक और रोटी दो ना, बहुत भूख लगी है... (भोला ने भोलेपन से माँ से कहा) |चमकी और मुनिया को खाना खिलाने के बाद एक आखिरी रोटी बची थी सो भी भोला को दे दी | रोशनी के मुख पर निराशा से अधिक संतोष का भाव था कि आज उसके बच्चे भूखे पेट नहीं सोए हैं | उसने कनस्तर में झाँक कर देखा, थोड़ा सा आटा बचा हुआ था, पर ये सोचकर कि सुबह के लिये हो जाएगा, उसने अपने लिये रोटी बनाने का ख्याल त्याग दिया | रात भर करवट बदलते -बदलते वो यही सोचती रही कि आगे के लिए खाने जुगाड़ कैसे होगा?  एक प्राईवेट नौकरी थी, वो भी अब हाथ से जाती रही | माना नौकरी जरूरी थी पर उससे ज्यादा जरूरी था इज्जत पर दाग न लगने देना | जब उसे अति होते दिखी तो उसने नौकरी से त्याग पत्र दे दिया |
रोशनी यथा नाम तथा गुण ...रूपवती के साथ -साथ गुणवती भी थी | मजाल है कोई उसे टेढी निगाह से देख भर ले | भूखे रहना स्वीकार है पर अपनी इज्जत को दाँव पर लगाना उसे कतई मन्जूर नहीं | किसी और दफ्तर में अर्जी दे कर देख लेती हूं... यह सोचते -सोचते न जाने कब उसकी आँख लग गई | 
कसूर क्या था भला उसका? पति दो साल पहले ही उसे छोड़ कर न जाने कहाँ चला गया था? तीन बच्चों के साथ किराए के मकान में रहने के सिवाय उसके पास कोई और विकल्प शेष नहीं था | तीन महीने से किराया भी न चुका पाई थी, राशन वाले का भी कर्जा बढ़ता ही जा रहा था | काम छूटे हुए भी एक महीना हो  चुका था | रद्दी के कागजों से लिफाफे बनाकर पास की दुकान में दे आती थी तो एक दो दिन का भोजन का जुगाड़ हो जाता | पता नहीं ऐसा कब तक चलेगा? यह सब सोचते -सोचते बच्चों को घर से बाहर न निकलने की हिदायत देकर वह काम की तलाश में निकल गई | मुश्किल से बी.ए. भी न कर पाई थी कि विवाह कर दिया गया | अब ऐसे में नौकरी मिलना भी कौन सा सरल था ? दिनभर की भाग दौड़ के पश्चात एक जगह उसे एक घर के सामने एक बोर्ड लगा दिखाई दिया जहाँ पर लिखा था कि बच्चों को सँभालने के लिये एक आया की आवश्यकता है | भागते को भूत की लंगोटी ही सही, उसे वहाँ काम मिल गया... वेतन थोड़ा सा कम जरूर था पर इससे ज्यादा सुरक्षित काम हो भी क्या सकता था? बस दोपहर तक छोटे बच्चों को सँभालना ही तो था | मन में सन्तुष्टि का भाव लिये वह घर आ गई | इतने में तो घर खर्च कैसे चलेगा, किराया, बच्चों की फीस,किताबें... सभी कुछ तो चाहिए | वह फिर से हिसाब लगाने बैठ गई | इसके साथ -साथ भी और कुछ करना होगा? लेकिन क्या ?...क्यों न बुनाई पर स्वैटर ही बना लिया जाए | बुनाई का शौक किस दिन काम आएगा? फिर चमकी भी तो बुनाई जानती है, कुछ उसका साथ मिल जाएगा | यह सोचकर अचानक उसके मुर्झाए चेहरे पर मानो कांति सी छा गई | वो कहते हैं न, हाथ का हुनर कभी जाया नहीं जाता, कहीं न कहीं काम अवश्य आता है | फिर जीवन का क्या है , उतार-चढाव तो आते ही रहेंगे |  हो सकता है कल को कोई और बढ़िया काम मिल जाए | 
चाहे जो भी हो जाए, भले ही कितने कष्ट सहने पडे़ं लेकिन वह अपनी बेटियों की पढ़ाई रूकने नहीं देगी... ताकि उन्हें उसकी तरह भविष्य में किसी भी कठिनाई का सामना न करना पड़े | यह सोचते हुए उसने अपने बच्चों की ओर मुस्कुरा कर देखा और घर के काम में व्यस्त हो गई |
            ----©किरण बाला, चण्डीगढ़


 



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