रेत का महल-किरण बाला


मुद्र के किनारे टहलते - टहलते अचानक उसकी निगाह  बच्चों की टोली की ओर चली गई जो  पैर को रेत से ढकते हुए छोटे -छोटे  घरौंदे बनाने में लगे हुए थे ।देख कर लगता था कि मानो  उनमें कोई प्रतियोगिता चल रही हो । बड़ी तल्लीनता के साथ सभी अपने - अपने घर को सुंदर बनाने में  लगे हुए थे । कितना कठिन होता है ये रेत का महल बनाना भी !


(यह सोचते - सोचते वह अपने बचपन की यादों में खो गया ) । गाँव में तालाब के किनारे कभी वो भी तो मिट्टी के घरौंदे बनाया करता था ।  एक बार बनता ,फिर पैर बाहर निकालने पर टूट जाता। (अचानक से एक अजीब सी मुस्कान उसके मुखमंडल पर आभा बिखेरने लगी ।)आखिरकार बहुत प्रयत्न करने के बाद उसने वो घर बना ही लिया । कुछ दूर जाकर अपनी बनाई कृति को दूर से निहार ही रहा था कि तालाब से निकलकर भागती हुई भैंस ने पल में ही उसे रौंद डाला । 
कितना व्यथित हुआ था वह उस दिन !  कुछ दिनों तक तो दोबारा से बनाने का मन भी नहीं हुआ । (उसके चेहरे पर अब उदासी का भाव प्रदर्शित हो रहा था ।) तभी एक लहर तीव्र गति से आई और उसके कपड़ों को भिगोती हुई चली गई ।
वह अक्सर शाम को यहाँ टहलते हुए आ जाता है। समुद्र की उथल - पुथल उसे अपने भीतर चल रही हलचल के समान प्रतीत होती है।  आत्म चिंतन के लिए इससे बेहतर स्थान उसे कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता । सूर्यास्त के बाद रात्रि के प्रथम चरण के मध्य ,विचारों की तरंग ,उन तमाम प्रश्नों के अर्थ  ढूंढने को मजबूर हो जाती है जो उसे दिन भर व्यथित करते रहते हैं ।
 प्रारम्भ से लेकर अंत तक समस्त जीवन आधार रेत पर ही तो टिका है ! महल चाहे  पत्थर का भी हो , लेकिन है तो वह भी रेत से ही निर्मित । कभी न कभी उसे भी विघटित होकर रेत ही तो बन जाना है ।  फर्क इतना है कि बचपन में बनाए रेत के महल हम बनाकर खुद ही तोड़ देते थे कि कल को नया बना लेंगे , पहले वाले से भी अधिक कलात्मकता से परिपूर्ण । तब बनाना और
बिगाड़ना एक आंनद की अनुभूति होता था । पूर्णतया: विरक्ति का भाव , एक सहज सरल प्रक्रिया । बड़े होने के उपरांत  यह पता चलता है कि कभी सहज सी लगने वाली यह प्रक्रिया वास्तव में एक कठिन कार्य है। 
तिनका - तिनका जोड़ - जोड़ कर 
मेहनत का रंग घोल - घोल कर
सपनों का था जो महल बनाया
ढहा रेत सा महल वो बनकर
सहसा ये पंक्तियाँ उसके मन में विचरण करने लगीं । सत्य ही तो है , जीवन के झंझावातों से बचते , निकलते विभिन्न उतार - चढ़ाव को पार करते , सहेजते हुए व्यक्ति प्रत्येक क्षण इस भय के साथ जीता है कि कहीं किसी किस्म का तेज बहाव या आघात उसे क्षति न पहुंचा दे।
मैं भी तो इस महानगर में अपने सपनों का महल खड़ा
करने आया हूँ । जिसकी अभी तक नींव ही नहीं डली।
पता नहीं कि मेरा घरौंदा कैसा होगा ? जैसा भी हो पर
अंत तो वहीं होगा , रेत के महल जैसा । फिर ये 
व्यर्थ की चिंता क्यों ? क्यों मैं फिर से बच्चे की तरह हो जाऊं? 



         -- किरण बाला, चंडीगढ़



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