मस्ती में भरा वह निश्चल बचपन ,
ढूंढे से भी ना मिलते अब वह सुहाने पल,
देहरी के बाहर संग रहता था मित्र दल,
हंसी ठिठोली से भरे वे अनमोल पल।
घनघोर बादलों का घुमड़ -घुमड़ घुमड़ना,
कितना सुखद था उन दिनों बारिश में भीगना ,
सजीले सपनों की नौका को अपलक निहारना,
हवा के झोंकोंं से फिर उसका हिचकौले खाना।
बचपन मेरा था कितना अनोखा ,
लगता है अब एक सपन सलोना,
टपाक -टप पड़ती हुई बूंदों का घेरा,
छपाक -छपाक उड़ते- उड़ाते छीटों का मेला।
गर्म पकोड़ों सहित मां की झिड़की ,
छींक आने पर थी हरदम मिलती,
बिन दस्तक बिन मौसम भूली बिसरी,
यादों के समंदर में लहरें उमड़ती।
अमूल्य निधि के खजाने से वे सुहाने पल,
सिक्कों से खनखनाहट से वे मित्र दल
बिन मौसम ही अब भी बरसात कर जाते हैं ,
जब स्मृति पटल पर वे मेरे छा जाते हैं।
निरुपमा त्रिवेदी
इंदौर
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