आईना-साधना

आईना मै देख बचपन को  खोजती हूं ,

मैं आंखों के आंसू दर्पण पर पोछती हूं।

 

दर्पण में कर्ण वीरों की कतार देखती हूं,

मैं आंखों से मृत मम्त्त्व 

खोजती हूं।

 

दर्पण में संघर्ष के विकल्प देखती हूं,

मैं बेबस हो देश के हालात पर रोती हूं।

 

दर्पण में विश्वास कि मैं आज देखती हूं,

आज अपने ही अपनों के विरुद्ध देखती हूं।

 

दर्पण में संकल्प के निशान देखती हूं,

मैं आज वर्तमान को लाचार देखती हूं।

 

दर्पण में गांवों की चौपाल देखती हूं,

मैं ख्वाबों में खुशहाल घर बार देखती हूं।

 

दर्पण में विलुप्त संस्कार देखती हूं,

मैं आंखों से नारी का अपमान देखती हूं।

 

दर्पण में जीवन का मैं मॉल देखती हूं,

आईनाआंखों से अनमोल अनुभव देखती हूं।

 

साधना मिश्रा विंध्य

लखनऊ उत्तर प्रदेश।

 


 




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