चौराहा-कंचन


यह बात मेरी पीहर की है हमारा घर बीच चौराहे पर था। बचपन से देखते आ रही थी मोहल्ले में कोई नया व्यक्ति आय तो हमारे घर के सामने ही रुक कर हम से पहले पता पूछता था। फलाने का घर यहीं है क्या और बाबूजी जो हमेशा बाहर बैठे रहते थे बड़े प्यार से पता बताते । किस गली से जाना और कहां कुत्ते से सावधान रहना यह सब भी बताते थे यह सब देख कर हमें बड़ी हंसी आती थी कि बाबूजी कितने फुर्सत से सबको घर का पता बताते हैं यहां तक की जब डाकिया कोई चिट्ठी भी लाता था तो हमारे दरवाजे के सामने रुकता था और पता पूछता था । फिर हर शाम को मोहल्ले के सारे बच्चे चौराहे पर जमा होते और खेल खेलते और चौराहे का वह नीम का पेड़ उसकी छाया तो जैसे थके हारे राहगीर के लिए जन्नत थी सभी वहां विश्राम करने के लिए रुकते ही थे। बाबूजी भी जहां गर्मी का मौसम आता वहां एक पानी का मटका रखवा देते थे जो सभी राहगीर की प्यास बुझाता था। वह चौराहा था ही ऐसा वहां खड़े हो जाओ तो सारे मोहल्ले की खबर हो जाती थी कहां किसके घर क्या आया और कौन बाहर गया। आज भी जब अपने पीहर जाती हूं तो बचपन की सभी यादें ताजा हो जाती है।


 


कंचन जायसवाल
नागपुर, महाराष्‍ट्र




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