चौराहा-मीरा द्विवेदी


      तेरह वर्षीय रामप्रसाद एक जमींदार के यहाँ नौकरी कर,अपनी पढ़ाई भी जारी रखे था।कुशाग्र बुद्बि रामप्रसाद से सभी खुश थे।समय बीतता गया, उसकी पढ़ाई जारी रही।साथ ही प्रत्येक कार्य के लिए वह दौड़ा दिया जाता,समय चाहे जो हो।मना भी कैसे करता, नौकर जो ठहरा।
   एक बार की बात है।जनवरी का महीना, हल्की-हल्की बूंदाबांदी, हाड़ कँपा देने वाली ठंड।रात्रि का पहर,घोर अँधेरा।उस वक्त का वाक्या, जब बिजली नहीं होती थी।रात के अँधेरे में रास्ते में रोशनी के लिए लोग लालटेन लेकर चलते थे।घर में उससे खाना लेकर मालिक के पास देने को कहा गया।मालिक अपने फार्म हाउस में थे।
    ठिठुरता हुआ वह एक हाथ लालटेन, तो दूसरे हाथ खाना लेकर चलता है।साथ में छतरी भी है।बारिश तीव्र गति पकड़ती है।तेज हवा भी कहती है, आज मैं भी चलूँगी।वह किसी तरह जाता है।तेज हवा के झोंके से लालटेन बुझ जाती है।उसे कुछ भी सुझाई नहीं देता।बस कभी-कभार बिजली चमकने से सामने पानी ही पानी भरा दीखता है।वह मालिक को खाना देकर वापस लौटता है.... बारिश अभी भी हो रही है।कुछ ही दूर चलता है, कानों से आवाज टकराती है.... रामप्रसाद! उधर से जाओ। इतनी रात, जाड़े की ठिठुरन,बारिश के साथ घोर अँधेरा, सन्नाटा। यहाँ तो कोई नहीं, किसकी आवाज है।एकबारगी भयवश वह हनुमान चालीसा का पाठ मन ही मन करने लगता है।तभी फिर वैसी ही आवाज... बेटा रामप्रसाद उधर से जाओ।
    रामप्रसाद कुछ सोचता हुआ आवाज के निर्देशानुसार दूसरे रास्ते से जाने का निर्णय कर,चल देता है।पुनः कोई आवाज नहीं आती।चलते-चलते क्या देखता है...सामने एक चौराहा है वहाँ पर एक अत्यंत बूढ़ी औरत बैठी ठंड के मारे ठिठुर रही है। पास जाकर- माँ जी इतनी रात ठंड में आप यहाँ क्यों बैठी हुई हैं? कँपकँपाहट के मारे उसकी आवाज नहीं निकलती।शरीर पर मात्र एक धोती है।किसी तरह बोलती है जाड़ा बहुत है।रामप्रसाद के पास भी सिर्फ एक लोई थी, जिसे वह ओढ़े था।रात में भी उसी लोई को ओढ़कर सोता था। सोच में पड़ा हुआ वह अपनी लोई उतारकर उस बूढ़ी औरत पर डाल देता है। मन उधेड़बुन में है कि रात कैसे कटेगी?क्या ओढ़ूँगा ? सोचता हुआ घर की तरफ बढ़ता है।मन विचारों से भरा है।क्या इसीलिये आवाज आ रही थी? इस बूढ़ी माँ को मेरी जरूरत थी।
    मन ही मन ऊहापोह में पड़ा घर पहुँचता है।अपनी कोठरी के अंदर जाने ही वाला था कि अंदर से मालकिन की आवाज आती है रामप्रसाद! तुम्हारी चारपाई पर एक रजाई रखी है आज ही भरवाई है तुम्हारे लिए।अभी उसमें धागे नहीं पड़े हैं, सँभाल कर ओढ़ लेना, कल उसमें धागे डलवा देंगे।अब भगवान को धन्यवाद देने की बारी रामप्रसाद की थी।
      विचार पनप आये कि एक लोई के बदले नयी रजाई मिली, पर पूरे जीवन यह विचार चलते रहे कि उस घोर अँधेरे सन्नाटे में सुनसान "चौराहे" पर रात एक अकेली बूढ़ी औरत कौन थी? आवाज सुनाई दी, वह किसकी आवाज थी, जबकि कोई भी आसपास नहीं था।  रामप्रसाद उन्हीं जमींदार के यहाँ नौकर के रूप में काम करते-करते B.S.C, L.L.B की शिक्षा ग्रहण कर नामी-गिरामी वकील बनकर काफी प्रसिद्धि अर्जित की।अपने बच्चों को ये चौराहे वाली सच्चाई  जरुर सुनाते थे।नोट:- ये सच घटना है सिर्फ नाम परिवर्तित है और बूढ़ी औरत को लोई ओढ़ाने वाला व्यक्ति लेखिका के पिता थे।
     
सत्यता पर आधारित स्वरचित एवं सर्वाधिकार सुरक्षित रचना।
लेखिका-मीरा द्विवेदी"वर्षा"
हरदोई, उत्तर प्रदेश।



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