चौराहा -सीमा रानी

कहानी


चौबे जी मन ही मन में बुदबुदाते हुए कह रहे थे -दिवाली का त्योहार क्या आया गली-मुहल्ले में हर तरफ़ चहल-पहल, बाज़ारों में इतनी भीड़ । ऐसा लग रहा है पूरा शहर सड़कों पर ही उतर आया है। फिर रिक्शेवाले से बोले -“अरे-अरे ध्यान कहाँ है तुम्हारा? दाहिने लो। हाँ अब सीधे, बस-बस रोक दो।”चौबे जी को देखते ही पप्पू और पिंकी दादू -दादू बोलते हुए बाहर आ गए। चौबे जी भीड़ से निकलकर बहुत राहत महसूस कर रहे थे। बच्चों को थैला पकड़ाते हुए बोले -‘’जाओ अपनी माँ को दे दो। पिंकी बेटा ध्यान से रसगुल्ले गिर न जाएँ।”बच्चे दौड़कर माँ को थैला पकड़ाते हुए रसगुल्ला माँगने लगे। पप्पू बोला - “माँ मुझे पिंकी से ज़्यादा रसगुल्ले देना । दीदी तो ज़्यादा खाएगी नहीं ये तो ख़ुद ही रसगुल्ले जैसी गोल -मटोल हो गई है।”इतना सुनते ही पिंकी बिगड़ते हुए बोली -“ अच्छा ये कौन-सी बात हुई? थैला पकड़कर मैं लाऊँ और रसगुल्ले ज़्यादा पप्पू को मिलेंगे। नहीं माँ , दोनों को बराबर देना।”


माँ ने रसगुल्ले का डिब्बा निकाला और अपनी सासु माँ को पकड़ाते हुए बोली - “लीजिए माँ जी ये मिठाई और इन बच्चों को आप ही संभालिए। मैं रसोई में जा रही हूँ।” दादी से अच्छा मिठाई का बँटवारा कोई कर भी नहीं सकता था। साथ ही उनके सामने किसी की चलती भी नहीं थी तो बच्चे भी अपने हिस्से की मिठाई लेकर चुपचाप वहाँ से चले गए। थोड़ी ही देर में हाँफते - हाँफते ललन आया और बोला - ‘’ग़ज़ब हो गया चौराहे पर भीड़ लगी है, शर्मा जी की स्कूटर और ऑटो रिक्शा की टक्कर हो गई। हेल्मट नहीं पहनने के कारण सिर में बहुत चोट लगी है। (ललन लगातार बोले जा रहा था) बहुत ख़ून बह रहा था। इस बुढ़ापे में इतनी भीड़-भाड़ में जाने की ज़रूरत ही क्या थे। दो जवान बेटे घर में बैठे ही रहते हैं।चौबे जी ने ललन की गाड़ी को ब्रेक लगाते हुए कहा -‘’ हाँ तुम भी तो जवान हो और मेरे बेटे भी हो तो मुझे क्यों बाहर जाना पड़ता है। क्या तुमने ऐसा कभी अपने इस बूढ़े बाप के बारे में सोचा? हर रोज़ उसी चौराहे से होकर दूध लेने मैं भी जाता हूँ। शाम को उसी चौराहे से होकर सब्ज़ियाँ लेने भी जाता हूँ। ख़ैर ये सब छोड़ो शर्मा जी किस अस्पताल में हैं? मुझे वहाँ ले चलो। मैं अपने मित्र के पास जाना चाहता हूँ।”


अपनी पिता की बातें सुनकर आज ललन को अपनी भूल और अपनी ज़िम्मेदारी का भी अहसास हो गया था। वह तुरंत अपने पिताजी के साथ शर्मा जी के पास गया। शर्मा जी के सिर पर पट्टी बंधी हुई थी। उनकी पत्नी के अतिरिक्त कोई वहाँ नहीं था। चौबे जी को देखकर उनकी आँखें छलक उठी। ऐसा लग रहा था जैसे  शर्मा जी चोट लगने से नहीं अपने परिवार सदस्यों के व्यवहार के कारण घायल हो गए थे। ललन ने सहसा अपने पिता जी को गले से लगा लिया और अपने बहते आँसुओं को भी रोक न पाया। उसने मन ही मन कुछ संकल्प लिया और अपने पिता को घर छोड़ने के बाद उनसे बोला “पिताजी अब आपको चौराहे पर जाने की ज़रूरत नहीं। आपकी ऊँगली  पकड़कर मैंने चलना सीखा। आप ही ने मुझे सही और ग़लत रास्ते का ज्ञान करवाया। चौराहे को पार करने से लेकर जीवन में आने वाली हर मुसीबत को पार करना सिखाया। अब मुझे भी अपना दायित्व निभाने दीजिए।’’ आज चौबे जी ने क्या अनुभूत किया इसे हर पिता समझ सकता है। इसके बाद ललन सीधे शर्मा जी के घर चला गया।


सीमा रानी मिश्रा
हिसार, हरियाणा




 


 


 


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