बचपन की चारो सखियाँ सुमन, प्रेरणा, विदिशा और काव्या ग्रीष्मावकाश में अपने मायके में थीं।एक दिन सभी ने प्रदर्शनी देखने का कार्यक्रम बनाया।वहाँ पर गर्मी के दिनों में प्रदर्शनी लगती थी।तरह-तरह की दुकानें, झूले, सर्कस आदि सभी कुछ तो था।प्रदर्शनी देखना तो मात्र बहाना था।असल में वह चारो वहाँ बैठकर इत्मिनान से अपनी-अपनी बातें साझा करना चाहती थी।
एक अरसा बीत चुका था सभी को एक साथ मिले हुए।सॉफ्टी की दुकान में बैठकर गपियाते हुए सॉफ्टी का आनंद भी लेती जा रही थीं। अचानक से विदिशा जोर-जोर से हँसने लगी।अन्य सखियाँ पूँछे जा रही,क्या हुआ? पर विदिशा की हँसी रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी।आस-पास बैठे हुए लोग भी मंद-मंद मुस्कराने लगे।बमुश्किल विदिशा हँसी रोकते हुए बोली...क्या बताऊँ? मुझे एक पुरानी घटना, अपने ससुराल में लगी प्रदर्शनी के मेले की याद आ गई।तभी हँसी नहीं रुक रही है।
अरे! तो हम लोगों को भी बताओ ताकि हम सभी आनंदित हों। अकेले-अकेले हँसे जा रही हो।विदिशा बोली...मेरे यहाँ यही प्रदर्शनी जनवरी-फरवरी के माह में लगती है।मै अपनी सासु माँ,ननद के साथ अक्सर जाया करती थी।मेरी सासु माँ को सॉफ्टी बहुत पसंद थी।वह तीसरे-चौथे दिन कहती, चलो सॉफ्टी खाने चलते हैं।
इसी क्रम में एक दिन हम तीनों लोग गए।पूरी प्रदर्शनी घूमकर, सॉफ्टी खाकर वापस बाहर निकल आये।यह उस समय की बात है जब प्रदर्शनी के वहाँ से हटने का दौर चल रहा था।कुछ दुकानें चली भी गई थीं।उन दुकानों की बल्लियाँ आदि उखाड़ने से जहाँ-तहाँ गड्डे हो गए थे।बाहर निकलने के बाद मेरी ननद को अचानक कुछ याद आया, बोली चलो एक बार और अंदर चलकर देख लें वरना तो ये प्रदर्शनी अब पूरे एक वर्ष बाद आयेगी।मेरे बहुत मना करने के बाद भी वह नहीं मानी।जबकि हम लोग काफी दूर निकल आये थे।उनकी जिद के सामने माँ जी भी निरुत्तर। वही हुआ हम ल़ोग फिर अंदर गए। पर ये क्या? अंदर घुसते ही मेरी ननद का एक पैर गड्ढे में पूरा चला गया।जितनी तेजी से पैर गड्ढे के अंदर गया था उतनी ही फुर्ती से चोट की परवाह किए बिना उन्होंने अपना पैर बाहर निकाला, ताकि उन्हें गिरते हुए कोई देख न ले। मै और माँ जी आश्चर्य चकित कि क्या हो गया? अपने दर्द को नजरअंदाज करते हुए उनके मुँह से यही निकला..... कि हम इसी के लिए दुबारा अंदर आये थे।अब हँसने की बारी हम लोगों की थी।आज जबकि हमारे बीच सासु माँ नहीं हैं, पर प्रदर्शनी तो हर वर्ष लगती है।मै वा मेरी ननद उस घटना को याद कर खूब हँसतें हैं। यकीन नहीं होगा, पर इस वाक्या को लिखते हुए वह दृश्य मेरे सामने घूम रहा है और मेरे चेहरे पर मुस्कान विद्यमान है।
लेखिका-मीरा द्विवेदी "वर्षा"
हरदोई, उत्तर प्रदेश।
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