(संस्मरण)
स्नातकोत्तर कर रही थी तभी शिक्षिका के रूप में एक विद्यालय में भी अपना योगदान देना प्रारंभ कर चुकी थी। पढ़ाई के साथ अध्यापन कार्य कर रही थी तो स्वाभाविक है कि दोनों में संतुलन बनाना थोड़ा कठिन हो सकता था। किंतु कम उम्र और अनुभवहीन होने के कारण मुझे छोटे बच्चों को पढ़ाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। बहुत बड़ा विद्यालय नहीं था और विद्यालय ग्रामीण परिवेश में था तो विद्यार्थियों की संख्या भी अधिक नहीं थी। उस विद्यालय में जब भी किसी नए बच्चे का नामांकन होता और यदि वह रोता तो उसे प्रधानाचार्य के अदेशानुसार मुझे ही सौंपा जाता था। यह घटना २००४ की है। आसिफ़ नामक एक बच्चे का नामांकन हुआ। ५ साल का बच्चा ऐसे रो रहा था जैसे उसे विद्यालय नहीं किसी जेल में लाया गया हो। मुझसे कहा गया कि मेरी कक्षा आज कोई और शिक्षक संभाल लेंगे, मुझे उस बच्चे को संभालना है ।उस मासूम का हाथ पकड़कर मैंने उसे कहा कि - ‘’तुम चुप हो जाओ। चलो तुम्हारे घर चलते हैं। तुम्हें नहीं पढ़ना तो कोई बात नहीं।’’ मेरी इस बात को सुनकर वो मुझे ऐसे देख रहा था जैसे मैं किसी तीसरी दुनिया की बात कर रही हूँ। वह ख़ुशी-ख़ुशी मेरे साथ क़दम बढ़ाने लगा। फिर मैंने उसे कहा “आसिफ़ अभी तुम्हारे घर चलेंगे पर उससे पहले क्या तुम मेरे इस स्कूल को घूमकर देखना चाहोगे? यहाँ बहुत सारे छोटे बच्चे भी हैं। क्या उनसे मिलना चाहोगे , उनसे दोस्ती करोगे?”
शायद उसे मेरी चालाकी समझ आ गई थी, फिर से वो रोते हुए बोला -“मुझे पता है आप मुझे घर नहीं ले जाएँगी। मुझे बुद्धू बना रही हैं। मुझे नहीं पढ़ना, घर जाना है।” फिर मैंने उसकी बात को पकड़ते हुए कहा -“तुम मत पढ़ो बिलकुल मत पढ़ना पर एक बार मेरे साथ क्लास में तो चलो।” उसे थोड़ी तसल्ली हुई कि पढ़ना नहीं पड़ेगा। वह मेरे साथ चलता रहा । मैंने उसे विद्यालय में लगे हुए सुंदर-सुंदर फूल दिखाए । उसे झूले पर झुलाया, टॉफ़ी दी तब जाकर वह शांत हुआ। फिर उसे उसकी कक्षा में ले गई, सभी बच्चों से उसका परिचय करवाया। इतनी देर में वह सहज हो चुका था। उसके बाद आधी छुट्टी हो गई और सब बच्चों के साथ मिलकर आसिफ़ ने खाना खाया। उसके बाद फिर से मेरे पास आकर खड़ा हो गया। मैंने कहा कि अब अपने दोस्तों के साथ बैठो, थोड़ी देर में छुट्टी हो जाएगी फिर घर चले जाना। तो उसने बड़ी मासूमियत से कहा -‘’नहीं मैं आपके साथ ही रहूँगा ।” फिर छुट्टी होने तक वह मेरे साथ ही मेरी हर कक्षा में घूमता रहा और छुट्टी होते ही अपने पिताजी के साथ ख़ुशी -ख़ुशी घर चला गया।
अगले दिन फिर आसिफ़ मेरे सामने था। मेरा पहला कलांश उसकी कक्षा में ही था तो मेरे साथ ही वह कक्षा में चला गया। मेरे साथ होने के कारण जहाँ आसिफ़ गौरवान्वित अनुभव कर रहा था वहीं उसके सहपाठियों में ईर्ष्या का भाव भी पनप रहा था। सैम ने तो कह भी दिया - “आसिफ़ तुम्हारी जगह इधर है, यहाँ बैठो।” मैंने भी उसका समर्थन करते हुए कहा -“ हाँ! सब अच्छे बच्चे अपनी -अपनी जगह पर बैठ जाओ।” आसिफ़ भी जाकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया। फिर एक-एक करके मैंने बच्चों को अपने पास बुलाकर ए, बी, सी, डी लिखने के लिए कहा। अंत में आसिफ़ की बारी आई और मैंने उसे भी बुलाया पर वह अपनी जगह से टस से मास नहीं हो रहा था। मैं जानती थी कि उसे कुछ लिखना नहीं आता इसलिए वह नहीं आ रहा है। फिर मैंने सभी बच्चों को संबोधित करते हुए कहा -“ बच्चों आप लोगों को याद है जब आप स्कूल में नए - नए आए थे तो आप लोगों को कुछ लिखना नहीं आता था। फिर धीरे धीरे आपने पेंसिल पकड़ना और लिखना सीखा। “ सभी बच्चों ने हामी भरी । मैंने फिर कहा -“आसिफ़ भी अभी नया-नया स्कूल में आया है और मुझे यक़ीन है वो आज ज़रूर ‘ए ‘ लिखना सीख जाएगा। क्यों आसिफ़ सीखना है न? अब इधर आओ। इस बार हिम्मत जुटाकर वह मेरे पास आया। मैंने तीन-चार बार उसे बोर्ड पर ‘ए ‘ लिखकर दिखाया फिर उसे लिखने के लिए कहा । आसिफ़ ने ‘ए ‘ लिखा तो मैंने ख़ुश होकर उसके लिए ताली बजाई और कक्षा के बच्चों ने भी तालियाँ बजाई। फिर तो आसिफ़ बार -बार ‘ए’ लिखने लगा और पल भार में वह आत्मविश्वास से भर उठा। उसकी सबसे दोस्ती भी हो गई। मैं उसे समझाकर दूसरी कक्षा में चली गई।
तीसरे दिन आसिफ़ के पिताजी मिठाई का डिब्बा लेकर स्कूल में आए। मुझे डिब्बा थमाते हुए मुझे शुक्रिया कह रहे थे। मैंने हैरान होते हुए कहा -“मिठाई किसलिए अभी तो उसने बस ‘ए ‘ लिखना ही सीखा है। तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया - “ये उसके ‘ए’ लिखने के लिए नहीं है। अब वह स्कूल आना चाहता है, पढ़ना चाहता है। उसके अंदर जो आत्मविश्वास आया है, उसके व्यवहार में जो परिवर्तन आया है मैं इस बात से बहुत ख़ुश हूँ और आभार प्रकट करने के लिए ये मिठाई आपके लिए और प्रधानाचार्य जी के लिए लाया हूँ।उस घटना को लगभग १७ साल हो गए पर जब भी मैं उस घटना को याद करती हूँ मेरे चेहरे पर स्वतः ही मुस्कान आ जाती है।
-सीमा रानी मिश्रा
हिसार, हरियाणा
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