अवसाद का शिकार बनती वर्तमान पीढ़ी –
आज वर्तमान युग में हम देख रहे हैं कि हमारे युवा तनिक बात पर ही आत्महत्या जैसा निंदनीय अपराध कर बैठते हैं ।इसके लिए भागदौड़ भरी जीवनशैली भी उत्तरदाई है। पुराने समय में हमारे परिवार जन संयुक्त रूप से रहते थे ।जहाँ बच्चों का पालन पोषण दादा- दादी, नाना -नानी के सानिध्य में होता था ,किंतु आज समय ने करवट ले ली है ।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है किंतु कभी-कभी यह परिवर्तन हमारी पीढ़ी के लिए दुखदाई साबित होता है। पहले बच्चों की परवरिश बुजुर्गों की देख-रेख में होती थी, जिससे उनके अंदर अच्छे संस्कारों का विकास होता था। उनका शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक एवं सर्वांगीण विकास होता था। आज हमारा बालक बहुत अकेला हो गया है। उसके पास समय बिताने के लिए मित्र नहीं है ..परिवार नहीं है.. हैं तो बस यंत्र, लैपटॉप, मोबाइल, वीडियो गेम.. इस यांत्रिक जीवन शैली में वह अकेलेपन का शिकार होने लगता है। उसे क्रोध आने लगता है ,तनिक सी बात पर वह चिड़चिड़ेपन का शिकार हो जाता है। हम अपने बालक को सभी सुख -सुविधाएं उपलब्ध करा रहे हैं ।उसकी प्रत्येक आवश्यकता को पूरा कर रहे हैं। किंतु अपने बालक को हम पर्याप्त समय नहीं दे पा रहे हैं। कारण है यह है कि आज माता-पिता दोनों ही कामकाजी होते हैं ।दोनों के पास ही इतना समय नहीं होता कि वे इस बात पर ध्यान दे सकें। उनके पास इतनी अंतर्दृष्टि भी नहीं होती कि वे बालक के अंदर चलने वाले मानसिक झंझावातों को समझ सकें। उसके मित्र बन सकें। उसके साथ 'क्वालिटी टाइम' व्यतीत कर सकें।
कामकाजी महिलाएं और अवसाद– अवसाद का हिस्सा केवल बच्चे ही नहीं बन रहे हैं, अपितु आधुनिक युग में धीरे-धीरे पूरी पीढ़ी को यह रोग अपनी चपेट में ले रहा है ।इसका प्रभाव कामकाजी महिलाओं पर भी पड़ रहा है। वे देर रात्रि तक अपना कार्य समाप्त करती हैं ,और सुबह को ऑफिस जाने की जल्दी में परिवार को अपना समय नहीं दे पाती हैं ।भागदौड़ भरी जिंदगी उनके अंदर मानसिक कुंठा को जन्म देती है। वह आत्मनिर्भर तो बन चुकी है, किंतु उन्हें आत्मसंतुष्टि नहीं मिल पा रही है। जिम्मेदारियों के बोझ तले दबकर उनके अपने स्वप्न भी धूमिल होते जा रहे हैं। वह पैसा कमाने की मशीन मात्र बनकर रह गई हैं।कोरोना जैसी महामारी में महिलाओं की समस्या को और अधिक बढ़ा दिया है ।अधिकांश घरों में हम देखते हैं कि महिलाएं गृह कार्य के लिए कामवाली बाई पर निर्भर रहती हैं। अब इस महामारी के चलते हैं यह सुविधा भी लगभग बंद हो चुकी है। जिसके कारण उन्हें अपना कार्य स्वयं करना पड़ रहा है ।सभी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते- करते महिलाएं मानसिक रूप से अत्यधिक थक जाती हैं। तथा उन्हें अपने ऊपर समय व्यतीत करने का समय ही नहीं मिलता है। पूरे परिवार का ध्यान रखने वाली महिला अपने स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह होती जाती हैं।और उसमें अनेक रोग जैसे -मानसिक असंतुलन, चिड़चिड़ापन, अनिद्रा,व थकान आदि बीमारियों का जन्म होता रहता है।
बुजुर्ग व्यक्ति और अवसाद – इस परिवर्तनशील युग में हम देखते हैं कि आज की युवा पीढ़ी में बुजुर्गों के प्रति सम्मान भावना में बहुत कमी आ गई है। हमारे इन बुजुर्गों को अपनी इस असहाय अवस्था में घोर अपमान का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी कामकाजी दंपत्ति अपने बुजुर्ग माता-पिता को वृद्ध आश्रम का रास्ता दिखाने से भी परहेज नहीं करते हैं। हमारे बुजुर्ग अकेलेपन का दंश झेल रहे हैं। बच्चे विवाह के उपरांत अपने गृहस्थ जीवन में रम जाते हैं, रह जाते हैं तो घर में अकेले ये बुजुर्ग । जो बिना देखभाल के उजाड़ और पर्णविहीन से प्रतीत होते हैं। इनका दुःख.. इनकी व्यथा... इनकी वेदना...इनकी उदासी शब्दों से परे है। इनका करुण क्रंदन , कातर स्वर कोई नहीं सुन पाता है।यह बड़े से घर में एक कोने में अपना जीवन यापन करते हैं। और अपने जीवन के अमूल्य क्षण, मृत्यु की प्रतीक्षा में व्यतीत करते हैं। कभी-कभी इनका यह अकेलापन मानसिक तनाव का रूप धारण कर लेता है ।इस स्थिति में यह आत्महत्या तक कर लेते हैं।
अवसाद और इससे होने वाली परेशानियों से बचाव के उपाय– हमें अवसाद और इससे होने वाली परेशानियों से बचने के लिए स्वयं को बचाने के लिए सर्वप्रथम स्वयं को व्यस्त रखना होगा। और अपनी खुशियों को संजोकर रखना होगा.. हमें दूसरों के अधरों पर मुस्कान लाने का भरसक प्रयत्न करना होगा। अपने बुजुर्गों की सेवा -शुश्रूषा से, उनका हृदय मुदित करना होगा।उनमें जीने की ललक पैदा करनी होगी ।युवाओं से मित्रवत व्यवहार करके उनका सही मार्गदर्शन करना होगा। माता-पिता को अपने बालकों के शारीरिक और मानसिक परिवर्तनों को समझना होगा । जीवन में प्रतिक्षण जीतना आवश्यक नहीं है, अपितु आवश्यक है हार को भली भाँति सहन करने की क्षमता का होना। हमें बालकों से मित्रवत व्यवहार करना चाहिये, ताकि बच्चा अपने मनोभावों को हमसे खुलकर व्यक्त कर सके।
पुरुष समाज का भी यह दायित्व है कि वह घर की महिलाओं की स्थिति को समझें। और उन्हें यह अहसास दिलाएं कि जिम्मेदारियों के निर्वहन में हम सब तुम्हारे साथ हैं। हमें अवसाद से बचने के लिए मधुर संगीत सुनना चाहिये।अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए डायरी और कलम का सहारा लेना चाहिये।
इन सब उपायों के द्वारा हम अवसाद जैसी भयंकर बीमारी पर नियंत्रण पाने में काफ़ी हद तक सफ़ल हो सकते हैं।तथा इन सबसे आत्महत्या जैसे जघन्य कृत्य से काफी हद तक बचा जा सकता है ।क्योंकि खुदकुशी किसी भी समस्या का स्थाई हल नहीं है। यह एक कायरता पूर्ण कदम है, जो अति निंदनीय है ।
अंत में मैं यही कहना चाहूंगी कि "ज़िन्दगी को सही ढंग से जीने में है बहादुरी, स्वेछा से मौत को गले तो कायर लगाते हैं प्रीति"
प्रीति चौधरी "मनोरमा"
जनपद बुलन्दशहर
उत्तरप्रदेश
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