अनेक बार इस वाक्य पर बैठ मैंने इतराया।मेरे इतराने में ऐंठन की अधिकता ने मुझसे मेरा लचीलापन छीन लिया ,शरीर की ऐंठन ने जिह्वा को नहीं बक्शा, बस चढ़ सवार हुई उस पर ,अब जैसे ही मुख ने क्रिया-कलाप आरंभ किया, जीभ ने ऐंठ कर कहा " मैं तेरे बस की नहीं रही, तू जा, जाकर अपने पर पुत्ती कालिख उतार "।जिह्वा के कथन पर मुख अचंभित था। क्योंकि उसे स्वयं पर लगी कालिख का तनिक भी आभास न था।मुख ने जिह्वा की बात से विमुख हो अपनी ग्रीवा को नीचे झुकाकर कुछ सोचने की चेष्टा मात्र की, पर 'कड़क' ,'कड़क' की कर्कश ध्वनि कर्णों में प्रदीप्त हुई।मुझे यह जानकर घोर आश्चर्य हुआ कि जीभ से अधिक ऐंठन ग्रीवा के पास थी।
मन चिन्तन के बजाय चिन्ता में उलझ गया कि मेरे ब्रह्म स्वरूप की खबर बस जमाने को नहीं हालांकि मेरा हर अंग गवाही दे रहा है, कि वो तुच्छ मानव जाति के सड़े बदबूदार जीवन से कहीं ऊपर किसी ओर लोक में जी रहा है।अंगों का गुरुर तो उस शून्य को छू रहा है जिसे लोग आकाश कहते हैं। शून्य को आ.. काश कहने वाले अवश्य यही सोच कर कह पाये होगें 'काश शून्य आ मुट्ठी में समा जाये'। मेरे विवेकशील मस्तिष्क ने कहा "जिस शून्य को गुणीजन मुट्ठी में नहीं समेट पाये, उसे लपेटे तुम कितनी आसानी से मृत्युलोक में विचर रही हो, क्योकि तुम ही तो साक्षात ब्रह्म हो"।
"एक तो सैयां बावरे, ता पे खायी भांग" जैसी लोकोक्ति बिजली की भांति मुझको छूकर गुजरी मैंने आवेश में सर को झटका। उसने मेरी मेहनत को व्यर्ध नहीं जाने दिया,अपने को पास की दीवार के करीब ले गया, अब सिर पर छोटा सा अपना खुद का एक सिर और था। अपने ऊपर नयी बढ़ोतरी देख मुझे कुछ- कुछ मानवपन का एहसास हुआ, फिर सोचा 'चलो, अगर ज्ञान सीमा से अधिक हुआ तो कुछ इस हिस्से में भी भरा जा सकता है। मेरे प्रगतिशील विचारों पर नेत्र विस्मय से अपनी निर्धारित सीमा से बाहर छलांग लगाने को तैयार थे। मैंने उन्हें अन्दर को धकेलते हुए कहा "अभी तुमने देखा ही क्या है?
अब तक शांत रह सब देखने वाले नेत्र बिफर कर बोले:- "क्या देखना शेष है? बताओ क्या नहीं देखा ? तुम जैसे मूर्खों को रोज ब्रह्मा बनते हुये देखा है। हर शहर की गली, नुक्कड़, बस्ती, गाँव, नगर, महानगर सब जगह देखा है।तुम जैसे आत्ममोह से ग्रसित हर उस पाखंडी को देखा है जो ये सोचकर अपने घिनौने कार्य करता है कि उसे कोई नहीं देख रहा, पर सच यह है कि उन्हें बाह्य रंगीनियों से भरे आवरण दिखाते समय हम उसे, उसके अंदर से देख रहे होते हैं।
वो सभी प्रकार का पाखंड करने वाले रंगीन दुनिया में मृग की भांति कुलाचे मार, अपनी ओर दूसरों को आकर्षित करने, तथा कस्तूरी को सूंघ कर खोजने के बहाने दूसरों की गन्दगी में नाक घुसेड़ रहे होते हैं। कुछ तो घसियारों से घास पा अपनी क्षुधा शांत करने में जुट जाते हैं। और कुछ अधिक पाने की होड़ में दूर तक निकल जाते हैं। हम नेत्र उस व्याघ्र को भी देख रहे होते हैं जो बिना व्याग्रता दिखाये उन पर नजर टिकाये रखता है और सही समय आते ही एक एक कर सभी हिरन व्याघ्र का निवाला बन जाते हैं।"
सच तो यह है कि अगर कोई व्याघ्र न भी हो तो काल- चक्र से कभी कोई नहीं जीत पाया।माया से निर्मित स्वर्ण- खाल लपेटे खोखला निरीह पशु जो भीतर से तो हर क्षण डरता है,परंतु बाहरी रावणों का सान्निध्य पा खुद को बलशाली समझ मृत्यु को चुनौती देने के लिये, अपने "मैं" को लिये इधर -उधर भ्रमित सा विचरता है।नेत्रों के पास विद्यमान ज्ञान की पराकाष्ठा का अनुमान लगाना किसी ब्रह्म ज्ञानी के लिये भी चुनौती का विषय हो सकता है, पर वो कौन लोग होते हैं जो नेत्रों का उपयोग किये बिना सब जान लेते हैं, जैसे :-'जो बीत गयी, बीतेगी, या बीतने वाली है'।क्या यह रहस्य कोई और बतायेगा?
दोनों नेत्रों के ऊपरी उठे भाग ने क्रोध से अपने पर रेखांकित रेखाओं को आड़ा- टेढ़ा कर मेरा ध्यान अपनी ओर यह कह आकर्षित किया कि 'हम पर ही उदय होती है ब्रह्मज्ञानी बनने की प्रक्रिया, अर्थात् 'अहम् ब्रह्म अस्मि'। शरीर का हर पुर्जा ब्रह्म होने को होड़ में लगा था। पर उसकी इस बात में लेशमात्र संदेह नहीं किया जा सकता। मस्तक तो पूरे तन का मुख्य अग्र भाग है अगर यह नहीं होगा तो टीका- तिलक कहाँ सुसज्जित होगा? टोपी कहाँ टिकेगी?और अगर यह गर्वीला नहीं हुआ तो दूसरे अपना माथा इसके समक्ष फोड़ने क्यों आयेंगे?ग्रीवा के पिछले हिस्से ने आगे को हिल समर्थन देते हुए कहा ' सत्य है कबूल लो '।
अभी कबूलनामे पर ठीक से मोहर नहीं लगी थी कि किसी ने कपाल के पिछले हिस्से पर जोर से ठोक दिया।बिना देर लगाये आगे का मस्तक अपने ही चरणों की ओर झुक गया।चरण-पादुकायें चहक उठी 'हर दम्भी का दम्भ हम तक पहुँच खत्म हो जाता है'। जो हम तक नहीं पहुँचता, उसके मुख और कपाल तक हम पहुँच जाती हैं ।अच्छे अच्छे हमसे घबराते हैं। जो ताकत हमारे पास है वो अन्य किसी हथियार के पास नहीं अर्थात् ' अहम् ब्रह्म अस्मि'।
मीना अरोड़ा
हल्द्वानी
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