धरती का गगन से ,
चंदा का चांदनी से ,
सूरज का किरणों से ,
फूलों का खुशबू से,
पंछी का पंखों से ,
दीपक का बाती से,
जैसा है अनोखा नाता,
वैसा ही ,हां- हां प्रिये!
नयन दर्पण तेरे- प्रतिबिंब मेरी काया,
नयन मिले मेरे जब तेरे नैनों से ,
पूर्ण होती है तब मन की अभिलाषा,
तेरे नयनों के दर्पण में अक्सर,
मैं खुद को संवारती हूं ,
स्नेहिल- अपलक निहारते हो तुम जब भी,
खुद को निखरा- सा पाती हूं मैं ,
भर जाता है जीवन में इंद्रधनुषी रंग,
तुम्हारे नयन समंदर में अक्सर ,
जब डूब जाती हूं मैं,
अंतर्मन के गहरे तल तक ,
हर्ष का पारावार न पाती हूं मैं ,
उल्लसित मनके सजीले स्वप्न,
मन उपवन के प्रणय स्वर,
मधुर -मधुरिम
अनकहे -अनसुने राग,
नयन तुम्हारे मुखरित हो
सब कह देते हैं प्रिये!,
अधरों पर लाख लगा लो
ताला फिर भी ,
नयन तुम्हारे
बोल देते हैं सब कुछ ,
मन ही मन बुन रहे होते हो ,
जब तुम कुछ शरारतें,
या छुपाना चाहते हो,
अपने दिल में कुछ बातें,
तेरे नयनों के दर्पण में विलोककर ,
जान लेती हूं सब मौन व्यथा ,
सर्द जाडों में हो जैसे,
गुनगुनाती धूप,
जेठ की गरम दुपहरी में ,
चल पड़ी हो जैसे समीर,
तृष्णा से व्याकुल जन,
पा गया हो जैसे शीतल नीर ,
मंजिल पा गया हो जैसे ,
कोई पथिक अधीर ,
सरिता से जा मिली हो जैसे ,
कोई तड़पती हुई मीन ,
तेरे नयनों से प्रिये!,
हां -हां तेरे नयनों से ,
कुछ ऐसा ही अनोखा ,
है नाता मेरा ,
ऐसा ही है अनोखा नाता मेरा!!
निरुपमा त्रिवेदी
इंदौर
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