गोधूलि की बेला में हृदय मंत्रमुग्ध हो जाता है,
पश्चिमांचल में जाकर स्वर्णिम रवि खो जाता है।
पखेरू पंक्तिबद्ध होकर दूर गगन में उड़ते हैं,
ज्यों अभिलाषाओं के धागे उर-दीवारों जुड़ते हैं
सिंदूरी सा वसुधा का सुंदर आँचल हो जाता है।
गोधूलि की बेला में हृदय मंत्रमुग्ध हो जाता है...
मन को संतृप्त करता है यह अनुपम क्षण,
तनिक विश्राम प्राप्त करता जीवन का रण,
मस्तक से चिंता की रेखाएँ मधुरिम पल धो जाता है।
गोधूलि की बेला में हृदय मंत्रमुग्ध हो जाता है...
गोधूलि के बाद रजनी का आगमन होता है,
निशा की गोद में क्लांत अंतर्मन सोता है,
सौन्दर्यपूर्ण प्रकृति का कण- कण हो जाता है।
गोधूलि की बेला में हृदय मंत्रमुग्ध हो जाता है...
प्रीति चौधरी "मनोरमा"
जनपद बुलन्दशहर
उत्तरप्रदेश
मौलिक एवं अप्रकाशित।
0 टिप्पणियाँ