निगाहें हटती नहीं
निहारना चाहती हैं
सदा अपलक
लजाती शर्माती
झुकी- झुकी पलकें
मन में कुछ
दबी दबी हसरतें
निगाहों से निगाहें
कर देती है अक्सर
बिन कहे बयां
हाल-ए-दिल
निगाहें हटती नहीं
निहारना चाहती है
सदा अपलक
कांधे पर प्रियतम के
रख अपना सिर
स्वप्निल संसार में
सपनों की डोर से बंध
चाहती है खो जाना
प्रणय के अनोखे बंधन में
चांदनी में सराबोर
होने तक भोर
निगाहें हटती नहीं
निहारना चाहती है
सदा अपलक
इंद्रधनुषी ख्वाबों का हार
पिरोना गूंथना
सहेजना चाहती है
उपवन की कली -सी
खिलती अभिलाषाएं
चाहत की सुरभि
बसाना चाहती है
सांसों में स्मृति में
निगाहें हटती नहीं
निहारना चाहती है
सदा अपलक
अथाह समुंदर के
गहरे तल में
सीप के मोती सम
छुपा लेती है प्रेम
अंतर्मन के भीतर
उठती ऊंची ऊंची
सागर -सी हिलोर
अंतर्द्वंद मचता शोर
निगाहें हटती नहीं
निहारना चाहती है
सदा अपलक
निरुपमा त्रिवेदी,इंदौर
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