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समझ नहीं आता शुरू कहाँ से करुँ। आज की पीढ़ी को देखते हुए स्वयं मैं और समाज में खुद को जागरूक समझने वाली किशोर एवं युवा पीढ़ी से लेकर उम्र दराज़ लोग भी जिस तरह से संस्कृति, परंपरा और संस्कारों की मिट्टी पलीत करने में लगे हैं , उसे देख सुन कर तो सिर के बाल भी नोंच लें तो भी कम है | आखिर कब तक विज्ञान और आधुनिकता के नाम पर खुद को छलते जाएंगे ?
एक तरफ विज्ञान के नाम पर बिना पंख इतना उड़ रहे हैं कि इस उडान ने हमें हमारी धरती से मिट्टी से ही दूर कर दिया जबकि इनके भयानक परिणाम से हम इतने अनभिज्ञ भी नहीं है दूसरी तरफ आधुनिकता के नाम पर दोहरी मानसिकता लिए इस कदर जिंदगी जी रहे हैं मानों ये जिंदगी जिंदगी ना हुई एक दोहरी मानसिकता से भरी ख्वाहिशों की गठरी का बोझ मात्र है जिसे बस ढोना है, सो ढोये जा रहे हैं। कभी देखा- देखी में तो कभी होड़ में या अहंकार वश ' परंतु दोनों रुपों में जीवन जी कोई नहीं रहा बस बर्बाद किये जा रहे हैं |
जैसे आज नारी सशक्तिकरण एवं बेटी बचाओ...... की आड़ में अधिकांश महिलाएं, बेटीयां इन अधिकारों का नाजायज फायदा उठाने से नहीं चूकतीं । घर से स्कूल - कालेज सरकारी गैर सरकारी एवं निजी संस्थानों में अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहतीं है चाहे वह उचित हो या अनुचित।
मैं स्वयं एक औरत हूँ और आप सभी इस बात का थोड़ा सा तो ज्ञान रखते होंगे कि आज कहीं ना कहीं एक नारी ही दूसरी नारी की दुश्मन है बल्कि ये कहूँ कि सबसे बड़ी शत्रु है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। आज इस पर विचार विमर्श करना अति आवश्यक है।
घर में हमारी बेटीयाँ पढाई के नाम पर टच मोबाइल, स्कुटी - बाइक की मांग करतीं हैं आवश्यकता है तो भी नहीं है तो भी। प्रश्न यह है कि इन सभी वस्तुओं का सही उपयोग कितनी बेटीयाँ करतीं हैं या कर रहीं हैं !??
जब भी कोई अप्रिय घटना घटती है तो सबसे ज्यादा उस घटना का संबंध मोबाइल के संपर्क से जुड़ा सामने आता है हालांकि मोबाइल को कई प्रकार से नारी सुरक्षा एवं अन्य सुरक्षा के लिए उपयोगी बनाया गया है फिर भी वे घर से निकलती है स्कूल -कालेज के लिए ट्युशन अथवा किसी प्रशिक्षण केंद्र के लिए.. लेकिन उनमें से अधिकांश अपने किसी पुरुष मित्र के साथ स्कुटी या बाइक पर सवार काॅफी शाॅप , माॅल , पिक्चर , पिकनिक स्पॉट , रेस्टोरेंट अथवा सैर सपाटे ( जिसे आधुनिक भाषा में लाॅग ड्राइव कहते हैं ) पर निकल जाती है |
इन बेटीयों को कतई शर्म महसूस नहीं होती की माँ बाप किस तरह उनकी ख्वाहिशें पूरी कर रहे हैं वह उनकी आंखों में धूल झोंकने से बाज नहीं आती यही सिला देतीं हैं । नारी सशक्तिकरण और बेटी बचाओ........ का ???
कुछेक को छोड़ कितनी बेटीयां मान रखतीं है ऐसे अधिकारों का । ? फिर जब कोई अप्रिय घटना घटती है तो सारा दोष पुरुष ( बेटे ) पर क्यूँ ?
घर - घर पर भी देखी गई है महिलाएं केवल अपनी मनमानी चाहतीं है यदि ऐसा नहीं तो कितनी महिलाएं हैं जो सास ससुर ,देवर जेठ या ननद के साथ रहना पसंद करतीं हैं ! ( नौकरी पेशे की वजह से बाहर रहने वाली महिलाओं को छोड़कर ) इसके लिए वह किसी ना किसी प्रकार आये दिन बात -बेबात कलह क्लेश उत्पन्न करने के लिए उतारु रहतीं हैं क्योंकि वे एकलवादी हो गईं हैं स्वयं को आधुनिक समझते हुए वह इस बात को समझना ही नहीं चाहतीं की भारतीय संस्कृति में परिवार का मुख्य अंश होतीं हैं नारी। और अलग रहतीं भी हैं पति के साथ तो वहाँ भी अक्सर देखा गया है केवल अपना पलड़ा भारी रखना चाहतीं हैं क्या संयुक्त परिवार आज अभिशाप बन गया है!?
यदि संयुक्त परिवार में पति अपनी पत्नी और माता पिता के बीच सामंजस्य स्थापित करना भी चाहे तो वह ऐसा होने नहीं देतीं क्योंकि इसके लिए उसके पास हथकंडे हैं ।(1) दहेज के लिए प्रताड़ित करने का 2) शारीरिक और मानसिक तौर पर सास ससुर द्वारा सताये जाने का और कुछ नहीं तो देवर जेठ द्वारा जोर जबरदस्ती करने अथवा बुरी नज़र रखने का... अब भला एक भरा पूरा परिवार इस बात को कैसे झेले अतएव समाज में थू-थू से बचने और अपने इज्जत को बदनामी के दाग से बचाने के लिए वे बहू पर अत्याचार करने के झूठे नाम पर चुपचाप खुद अत्याचार सहते रहते हैं फिर अंततः एक समय ऐसा भी आता है जब यही महिलाएं परिवार का साथ पाने को फडफडातीं नज़र आतीं हैं |
दूसरी बात -समाज के कुछेक घरों में महिलाओं ( पत्नी ) का किसी पर पुरुष से आकर्षण (अवैध संबंध) भी एक बसे बसाये घर परिवार को बदनामी के कटघरे में लाकर खड़ा कर देता है जो घातक सिद्ध होता है जबकि पारिवारिक महिलाओं को ईंट पत्थरों से बने मकान को 'घर' बनाने वाली लक्ष्मी के रूप में देखा और पूजा जाता है | लेकिन इन सब में कितनी महिलाएं सफल होतीं हैं!? मैंने जो कुछ भी लिखा वह चश्मदीदों के साक्ष्यों को जुटाकर लिखा है लेकिन उन बेचारों ने सिर्फ हमें गुप्त रूप से लिखने भर की अनुमति दी।
अब आज की तारीख में शादी ब्याह भी टेढ़ी खीर हो गई है एक तरफ तो समाज में दहेज के लालची लोगों ने बेटीयों को बेजान वस्तु समझ रखा है तो वही दूसरी ओर बेटीयों ने भी किसी के बसे घर को उजाड़ने का प्रशिक्षण ले रखा है आपने अखबारों में पढ़ा और सुना होगा कि शादी हुई बड़ी धूमधाम से और पहली रात को ही दुल्हन गायब...... कहीं गहने कपड़े व नगदी लेकर तो कहीं पर पुरुष (आशिक ) के साथ..क्या यह बेटीयों के लिए शोभनीय है ?और कुछेक के साथ तो यह भी सुना..... देखा गया है कि किसी गरीब बाप के पास देने को कुछ भी नहीं है सिवाय अपनी बेटी के.... तो उसे एक संपन्न परिवार का पिता अपने बेटे का ब्याह उस गरीब बेटी के साथ सिर्फ इस भावना से करके अपने घर ले जाता है कि गरीब की बेटी भी पल जाएगी और मेरे बेटे का घर भी बस जायेगा.... ईश्वर की कृपा से सब कुछ है हमारे पास सिवाय एक बेटी स्वरूपा बहू के.. लेकिन यहाँ भी हमारे ब्रज की एक कहावत बिल्कुल सटीक बैठती है
" नंगा ए मिल गई पीतर,बाहर धरुं कै भीतर "
अर्थात जिसके पास रोटियां भी मुश्किल से नसीब थी फिर उसे सीधे मालपुए मिलने लगें तो वह बिना उत्पात मचाये नहीं पचती सो आये दिन नखरे बात बात पर धौंस आदि अब बात फिर वहीं आकर रुक जाती है कि इतना कुछ किया फिर भी समाज में बदनामी और थू थू सो उसके मन मुताबिक परिवार को चलने पर मजबूर होना पड़ता है। |इसी क्रम में एक और बात छानबीन करने से सामने आई की बेशक कोई बेटे वाला दान दहेज नहीं मांग रहे और वह बेटी का पिता अपनी बेटी को समाज के अनुसार अच्छे से विदा करने में पूरी तरह समर्थ है तो भी वह बाज नहीं आता बेटे वालों को निचोड़ने में ( आपकी गरज हो तो मेरे घर का नाम करके जाओ और अपने घर का वंश चलाओ ) अर्थात जिस प्रकार सारे मेहमानों रिश्तेदारों का खाना खर्च एक बेटी का बाप वहन करता है उसी प्रकार आप भी अपना और मेरा सारा का सारा खर्चा उठाओ और बेटी ब्याह ले जाओ यहाँ एक बात और साफ कहना जरुरी है कि यदि बेटे वाले कहते हमें तो केवल आप की बेटी चाहिए अपने बेटे के लिए मंदिर में अपनों के बीच भगवान को साक्षी मानकर फेरे डलवा दो ! तो बड़े अकड़ से कहता है " अरे समाज में मेरी भी कोई इज्जत है कि नहीं " सीधी बात ' हींग लगे ना फिटकरी रंग चोखा ही चाहिए ' बात फिर वही..... उस बेटे के पिता की भावना "ईश्वर का दिया सब कुछ है "।
यहाँ एक प्रश्न फिर उठता है कि क्या ऐसी बेटीयों का फर्ज नहीं बनता की वह अपने पति के परिवार की उन भावनाओं की कदर करें ...! और एक अच्छी बहू बनकर खुद भी खुश रहे और परिवार को भी खुश रखे ??
अब आईए आधुनिकता और स्वतंत्रता पर.... माना कि सजना-संवरना हर नारी का नैतिक अधिकार है ! लेकिन सजने-संवरने के नाम पर अंगों का सरेआम प्रर्दशन करना क्या उचित है!! अधिकांश महिलाएं , बहू -बेटीयाँ बिना उम्र , अवसर और स्थान को नजरअंदाज कर कुछ भी पहन कर चल देतीं हैं....फैशन करना आज के मुताबिक खुद को ढालना ये अलग बात है लेकिन इतनी भी नासमझी क्या सही है...कि किसी के शोकाकुल परिवार या कोई धर्म स्थल , शिवालय देवालय पूजा के लिए भी घुटनों से भी उपर ( निक्कर ) वक्ष तथा बगल झांकती (टाॅप ) कमर से नीचे के अंगों को दिखाती ( स्कीनटाइट ) जींस पहन कर जाना या फिर छन्नी जैसा कपड़े का.... नितंब दिखाते वस्त्र पहनना..... हमारी संस्कृति एवं संस्कार का हिस्सा है..!!???
आज हम और आप अपनी भारतीय संस्कृति और संस्कारों को किस रूप में देख रहे हैं?????कुछ कामकाजी नौकरी पेशा महिलाओं , बेटीयों को छोड़ कर हम या आप ये नहीं पहचान सकते ! की कौन कुवांरी है कौन विवाहिता या कौन विधवा !? क्योंकि इन्होंने अकारण अपनी वेषभूषा ऐसी ही बना डालीं हैं कि बस .... यहाँ पर मैं आपको राम चरित मानस की एक चौपाई पर लिए चलती हूँ जो हमारी संस्कृति एवं पौराणिक इतिहास से जुडा है इस चौपाई में काकभुशुण्डि जी गरुड़ जी को बता रहे हैं कि
" सौभागिनी विभूषन हीना |
विधवन्ह के सिंगार नबीना ||
इस चौपाई के अर्थानुसार सुहागन स्त्रियाँ तो पूरी तरह श्रंगार और आभूषणों से खुद को दूर रखेंगी ! परंतु विधवाएं नित नये श्रंगार बनावेंगी.... ऐसा दृश्य हमारे आसपास क्या नहीं दिखाई देता !?
हम मानते हैं ! कि पुरुष वर्ग में बहसीपन , अहंकार और हिंसक प्रवृत्ति होती है और इसके लिए वे दोषी भी हैं !! लेकिन हर दृष्टि कोण से केवल पुरुषों (बेटों ) को ही दोषी ठहराना कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? मात्र पांच दस रूपये के ब्लेड से सेविंग कर खूबसूरत दिखने वाले पुरुष (बेटे) और सौ रूपये से लेकर पांच हजार रुपये से भी अधिक का मेकअप किड खरीद कर लगाने के बाद खूबसूरत दिखने वाली स्त्रियों ( बेटीयों) में क्या कोई अंतर नहीं ?
हम अक्सर बड़ी बड़ी बातें करते हैं कि बेटीयों को पंख दो.. उन्हें खुले आसमान में उडने दो..... बात विचारणीय है कि क्या बेटीयाँ परिंदा है या कोई पक्षी..... जो उन्हें पंख दिए जाएं....... हाँ ! बेटीयों को हिम्मत और हौसला दें... ये अवश्य तर्कसंगत है | उधर चार जाबांज बेटीयों ने फाइटर प्लेन चला कर परिवार और देश का नाम क्या रौशन किया इधर जमीन पर भी ठीक से पैर न रख पाने वाली चालीस... मन कर्म और वचन की पंगु बेटीयाँ भी बिना वजह खुद को उनके बराबर आंकने लगीं !! यह हास्यास्पद नहीं लगता !? क्या जींस शर्ट पहनना , बाइक चलाना सिर के छोटे- छोटे बाल रखना या पुरुषों की तरह पूरे शरीर ( बदन) को तानकर चलने को ही पुरुष की बराबरी करना कहते हैं ?
हम इस बात को कतई नहीं नकार सकते की हर युग में पृथ्वी पर नारी (महिलाएं बेटीयाँ) हमेशा से श्रेष्ठ थीं और रहीं हैं परंतु आज वह श्रेष्ठ होते हुए भी पुरुषों की बराबरी के चक्कर में अपने वास्तविक व्यवहार और नारी शिष्ठता से इतना नीचे उतर रहीं हैं कि उन्हें इसका भान ही नहीं |
स्वतंत्रता (आजादी) एवं पुरुषों से बराबरी के नाम पर केवल दिशाहीन होकर अंधाधुंध दौड़ती जा रहीं हैं और इसी के चलते कम कपडों में वह घर से बाहर किसी वस्तु की भांति नज़र आतीं
है | यहाँ एक बात और है जिसे लिखना आवश्यक है कि! आधुनिकता की दौड़ में दोहरी मानसिकता का एक कारण यह भी है कि हमने किसी मजबूर को उसके तन ढकने के लिए (चाहे वह सामान्य स्थिति में हो या सर्दी-गर्मी की वजह से ) अपनी जेब से एक पैसा नहीं खर्च कर सकते ! लेकिन उसी तन को फैशन का नाम देकर उघारने में करोड़ों की दौलत लुटा देते हैं !!
यह दोहरी मानसिकता नही तो क्या है!? यही कारण है कि मजबूरी में जिसका तन दिखता है वह फूहड़ निर्लज्ज और ना जाने क्या क्या कहलाती है वहीं जब फैशन , समय की मांग और डिजाइन बता कर जो नग्नता दिखाई जाती है उसे स्मार्ट , ब्युटी फुल सोशलिस्ट विमेंस के रूप में देखा जाता है | अब ऐसे में युवा पीढ़ी यदि संस्कारित हों भी तो कैसे ? इसलिए आज अधिकांश बेटीयाँ सब कुछ बनना चाहती है सब कुछ ..... लेकिन एक कुशल ग्रहणी एक संस्कारी बहू एक ऐसी पत्नी जिसमें पति को एवं मित्र दोनों का साथ मिले..... समाज के लिए मिसाल बने ऐसा संयुक्त परिवार कायम कर सकने की सामर्थ रखने वाली महिला क्यूँ नहीं बनना चाहती ...!??
जिस प्रकार ईंट पत्थरों से बने मकान को घर बनाने की शक्ति सामर्थ एक बहू ( महिला ) में होती है वैसे ही समाज को सही अथवा गलत दिशा देने में भी इन्हीं का बहुत बड़ा हाथ है जिसे आज वह नज़र अंदाज करतीं जा रहीं हैं |
और इन्हीं दोहरे चरित्र एवं मानसिकता के चलते वह समाज में पुरुषों की आपराधिक प्रवृत्ति को भी बढावा दे रही हैं चाहे वो माँ हो पत्नी हो या कोई मित्र | यह लेख मेरी कलम से बहुत पहले निकल चुकी है किंतु बात वहीं आकर रुकती है कि " नारी ही नारी की शत्रु है " और ना इस लेख को प्रकाशित होने दिया ना ही प्रसारित..... जबकि इन सभी बातों का मेरे पास ही नहीं बल्कि प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से सारे समाज के सामने है।
कुछ ऐसी ही परिस्थितियों से जूझते लोगों पर मैंने शोध भी किया कुछ प्रामाणिकता भी देखी ( जैसे राम चरित मानस की उपरोक्त लिखी चौपाई )
इन्हीं सभी बातों के प्रश्न पर मुझे कुछ स्थानों पर अपमान भी सहना पड़ा.... क्योंकि बडे़ ही रौब से मुझसे पूछा गया "अरे ! कौन नहीं देता अपनी बेटियों को संस्कार !! कौन नहीं चाहता कि बेटी सभ्य और संस्कारवान बने ? ( जब कोई प्रश्न करें तो उत्तर देने या सुनने की सामर्थता भी होनी चाहिए ) तो ऐसा मैंने ना लिखा है ना ही कहा है .. परंतु हां..... यदि बेटी को संस्कार दिया होता तो आये दिन अकारण यूँ भ्रूण हत्या नहीं होती जिसका ठीकरा परिवार पर फोडा जाय... यदि संस्कार मिला होता तो आये दिन टाॅयलेट शीटों पर खून से लथपथ मांस के लोथड़े ना पड़े मिलते... यदि संस्कारित होते तो और कहीं नहीं बल्कि भारत में ही अधिकतर वृद्धाश्रम बूढ़े-बूढ़ियों से ना भरे पड़े होते.... यदि संस्कार की छाया ही पडी होती तो अपने ही मेहनत से बनाये आशियाने में माता पिता गैरों की तरह दयनीय स्थिति में किसी कोने में उपेक्षित ना पड़े होते..... और यदि बेटी संस्कारों से झोली भरकर मायके से विदा होती तो हर दस में से लगभग चार पति ( पुरुष ) अपनी माँ और पत्नी के बीच, सामंजस्य बिठाते बिठाते एक घुटन से बेबस हो अपनी जीवन लीला समाप्त करने को मजबूर होता...... इतना उत्तर सुन कर मुझसे प्रश्न करने वालों के चेहरे फीके पड चुके थे |
मानते हैं कि पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं बेटीयों के साथ गलत हुआ है और हो भी रहा है लेकिन सारा का सारा दोष एक तरफ मढ़ कर पूरे पुरुष समाज को गलत ठहराना तो मुर्खता होगी ना.... |
एक तरफ हम ट्रेन बस अथवा किसी भी कार्य वश लम्बी लाइन में खड़े-बैठै पुरुषों को ये कहकर हटा या उठा देतीं हैं कि ! "लेडीज फस्ट " या फिर किसी अन्य महिला के लिए बेहिचक कहतीं हैं कि 'अरे ! आप को शर्म आनी चाहिए आपकी माँ बहन जैसी महिला खडी़ है और आप.......... और वहीं दूसरी तरफ कि " हम किसी पुरुष ( लडकों ) से कम हैं क्या...?
यही सब दोहरापन सोचने पर विवश करता है कि आखिर हम कहना क्या चाहते हैं अथवा करना क्या चाहते हैं !?
क्या पुरुषों ( लडकों बेटों ) को दर्द नही होता.... क्या उनके पैर... सिर दुखते नहीं |
कब तक.... इस दोहरी मानसिकता में जीयेंगी ! आप बराबरी नहीं कर रहीं बल्कि बराबरी के चक्कर में अपने नारीत्व का अस्तित्व ही खो रहीं हैं .... जरा भान कीजिये ! आप नारी शक्ति हैं.....जिसका अनेक रुपों में प्रेम पाने को देव भी पृथ्वी पर आते रहे हैं | मेरे लिखने ( कहने ) का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि आज की नारी युवा पीढ़ी ऐसी दोहरी मानसिकता से बाहर आ कर हकीकत की धरातल अपनी जमीन अपनी मिट्टी से जुड कर जियें क्योंकि स्वतंत्रता और स्वछंदता दोनों ही अलग है |
रास्ते बेशक लम्बे हो यदि सही है तो अवश्य चुनें.. छोटे रास्ते के चक्कर में गलत रास्तों का चयन भविष्य में अनेक मुसीबतों को आमंत्रित करता है यदि फिर भी कहीं कुछ गलत या अप्रिय घटना घटती है तो उसकी सही जांच हो .. महिला हो अथवा पुरुष ( बेटी या बेटा ) वह अपराधी है तो सजा अवश्य मिले |
यहाँ ना तो महिलाओं ( बेटी बहू ) का विरोध है और ना ही पुरुषों ( बेटे लडकों ) की सिफारिश या सर्मथन ... बात केवल उचित एवं अनुचित की है " दोषी बचें नहीं और निर्दोष फंसे नहीं " क्योंकि जितनी भी महिलाओं ( बेटी लडकीयों बहू ) पर अत्याचार , प्रताड़ना , हिंसा और दुर्गति दिखाई देती है या फिर दिखाई जाती है वह पूरी तरह सत्य हो यह स्वाभाविक नहीं .... |यदि एक बेटी कुशल बहू बनकर ग्रहणी का दायित्व निभाएगी तो एक अच्छी माँ बनेगी और जब एक अच्छी माँ बनकर अपने बच्चों की परवरिश करेगी तो शक ही नहीं की वे बच्चे संस्कारवान ना बनें..... क्योंकि जब बच्चों को हर किसी की भावनाओं की कद्र करना बचपन में अपने परिवार से ही सीखने को मिलेगा तो वह कभी किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाने की सोच भी नहीं सकेगा या सकेगी.... तब जाकर हमारे बच्चों को दिये अधिकार सही मायने में सफल होंगे फिर चाहे वह नारी सशक्तिकरण हो या बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ......... वर्ना पता नहीं इस विज्ञान और आधुनिकता की अंधी दौड़ में ये युवा पीढ़ी कहाँ जा कर झपाएगी ! और इसके क्या परिणाम होंगे |
संतोष शर्मा शान
हाथरस ( उ. प्र. )
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