वर्ष-:3 अंक -: 1 जनवरी 2021 से मार्च 2021
दर्द ए दिल
सुलगाने
का
हुनर
भी
जुदा
है
यार
का
मेरे
लगता है उसने शमा परवानों की सोहबत की है
आने
से
उसके
गुलशन
सी
लगती
है
हर
महफिल
लगता है मिल के किसी कली से महका वहीं है
जलाता
है
हरेक
शब
ही
शमा
वह
बड़े
जतन
से
लगता है रोशन करने का हुनर सीखा वहीं है
वफा
के
नाम
से
ही
कराह
उठता
है
वह
घायल
सा
लगता
है
बेवफाई
की
चोट
का
जख्म
पाया
वहीं
है
मुस्काके
अपना
बनाने
का
अंदाज
है
यार
का
मेरे
लगता है पहली बार दिल उसका फिसला वहीं है
खंजर
भी
सबसे
जुदा
है
कातिल
यार
का
मेरे
लगता
है
हसके
कत्ल
करने
की
अदा
सीखा
वहीं
है
मिश्री
सी
मीठी
कसक
जगाता
है
वह
सीने
में
लगता है ये आदत ए तलब मिली वहीं से है
खूबसूरती
से
बड़े
ही
छिपा
लेता
है
सीने
में
दर्द
को
लगता
है
दर्द
ए
दिल
की
सौगात
मिली
वहीं
है
माना
की
बेवफाई
का
आलम
दिखाया
होगा
कभी
किसी
ने
पर सुन यार मेरे हरेक शंमा सितमगर नहींं है
पर
कर
ले
यकीन
सबसे
अमीर
है
यार
तू मेरे
दर्द ए दिल की दौलत से हर कोई मालामाल नहीं है
चलती
है
कलम
तेरी
'नीर'
उसी
दर्द
की
स्याही
से
वरना
मेरे
यार
यह
कलम
कुछ
लिखती
ही
नहीं
है
रोशन
है
ये
दुनिया
जैसे
सूरज
के
ही
दम
से
पता
है
'नीर'
सबको
बिन
उसके
'प्रभात'
नहीं
है
चाकलेट
देखकर
चाकलेट
आया
फिर
याद
चाकलेटी
बचपन
शीशों
में
से
झांकती
दुकान
पर
सजी
देखकर
चाकलेट
ललचाता
अपना
मन
उन्हें
पाने
को
आतुर
बचपन
ढूंढता
फिर
बहाने
ठिठककर
वहीं
बिन
पाए
ही
करता अनुभूत
मिठास
चाकलेटी
जिह्वा
पर
अपनी
लड़ियाता
हक
से
करता
फिर
जिद
रीझाता
खुद
बन
कृष्ण
कन्हैया
बालस्नेह
से
अपने
मनाता
मां
को
मिश्री
मीठे
से
उसके चाकलेटी
बचपन
पर
करती
न्योछावर
पल्लू
में
बंधी
संचित
राशि
लेकर
मुट्ठी
में
फिर
दौड़ता
द्रुतगति
लेकर
लहर
हर्ष
की
बचपन
चाकलेटी
मन
ही
मन
गुलाटी
खुशियां
अनोखी
देखकर
चाकलेट
आया
फिर
याद
चाकलेटी
बचपन
प्रेमसागर
तुम्हारे मन का प्रेमसागर
अहर्निश मेरे मन में आकर
लेता है अक्सर मन में हिलोर
तुम घन बन से, मैं जैसे चकोर
मैं तब तुम बन जाती हूं
चातक-सी प्रीत जगाती हूं
पावन प्रेम में बंधकर
कितना सुख मैं पाती हूं
चातक मन को जैसे
स्वाति की बूंद ही भाती है
बिन उसके सुनों वह
स्वप्राण छोड़ जाती है
चातक -सी चितवती
प्रिये ! सांची प्रीत मेरी
टूटने तक सांसों की डोरी
तुझ घन को ही निहारेगी
स्वातिबूंद से ही तृष्णा प्रिये!
मनप्राण की बुझ पाएगी
मेरी आंखों में आस प्रिये!!
निज सांसों में सांस प्रिये!
न तुम चाहो बरसना
न बरसों घन बन
मैं विरह अनल जोगन
नित जलाती तन मन
सांसों के अंतिम छोर तक
अपने जीवन की भोर तक
मैं सदा तुमको ही चाहूंगी
चातक सी प्रीत निभाऊंगी
निरुपमा त्रिवेदी ,इंदौर
निरुपमा त्रिवेदी , इंदौर ९/२/२०२१
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