पढ़े संतोष शर्मा की कहानीयॉं -असली खुशी व यादों का आलिंगन

 वर्ष-:3 अंक -: 1 जनवरी 2021 से मार्च 2021

असली खुशी

दादाजी दो दिन से पता नहीं कहाँ जाने की तैयारी में लगे थे.... ढेर सारे फूल  , खोये के लड्डू  , बेसन के लड्डू कुछ खिलौने और भी ना जाने क्या क्या  एक थैले में रखते जा रहे थे  |और आज तो सुबह से नहा धो कर ऐसे तैयार हुए मानों किसी बारात में जा रहे हों |आनंद ने आकर अपनी मम्मी को कहा  " मम्मी आपने देखा दादाजी को  ?
हाँ बेटा  ! देख तो रही हूँ पर करुं क्या  !? अगर कुछ बोलती हूँ तो सभी यही कहेंगे कि बहुएँ तो वैसे भी बुजुर्गों को बोझ समझतीं है सो। परंतु मम्मी  ( रितू ने भी नाराज होते हुए कहा) दादाजी को शर्म आनी चाहिए कि बूढ़े वो हुए हैं या उनके सोचने समझने की शक्ति भी बूढ़ी हो गई...?
मम्मी हमें दादाजी पर नज़र रखना ही होगा.... अरे कालोनी में हमें कोई बात भी नहीं करने देगा |इतना कहकर आनंद ने अपनी स्कूटी स्टार्ट कर दादाजी के पीछे जाने लगा तो रितू भी पीछे बैठ गई |दादाजी चौराहे पर आकर एक आटो रिक्शा में बैठ गए  ' रितू और आनंद कुछ दूरी बनाए उस आटो रिक्शा के पीछे अपनी स्कूटी लगा दी  |
आटो रिक्शा  पास की कालोनी के एक छोटे से पुराने मकान के सामने रुक गई  उन्होंने रिक्शे वाले को पैसे देकर उस मकान का दरवाजा खटखटाया और जब दरवाजा खोलने  एक पचपन - साठ साल की महिला निकलीं तो रितू और आनंद की भौंहें चढ़ गई और जैसे ही दरवाजा बंद हुआ  दोनों की नजरें ऐसी जगह ढूंढने लगीं जहाँ से अंदर देखा जा सके  'तभी बगल की साइट में एक खिड़की दिखाई दी जिसमें केवल एक जालीदार परदा लटक रहा था |
जब उस खिड़की से दोनों ने झांका तो अंदर का दृश्य देख कर उनकी नजरें शर्म और ग्लानि से झुकने लगी |
अंदर बड़ी सी मेज पर एक बलिदानी फौजी का फोटो रखा था जिस  पर फूलों की माला चढ़ी थी और पास ही एक दीया जल रहा था दादाजी ने थैले से लाल रंग के गुलाब के फूल निकाले और उस फोटो पर चढा कर हाथ जोड़ लिये  'उनके फूल चढाते ही पास खडी़ एक महिला उस बुजुर्ग महिला से लिपट कर रोने लगी और दादाजी व्हील चेयर पर बैठे अपने हमउम्र बुजुर्ग का हाथ थामे नम आँखों से सांत्वना दे रहे थे  |
रितू और आनंद को दादाजी के प्रति गलत सोच के लिए पश्चाताप हो रहा था तभी दो बच्चों ने आकर दादाजी को प्रणाम किया तब दादाजी ने वह थैला उन बच्चों को पकडा दिया बच्चों के चेहरे पर मीठी सी मुस्कान फैल गई  |
रितू अपनी आँखों में आए आंसुओं को पोंछते हुए बोली   " भैया पाश्चात्य संस्कृति से आई कुछ सभ्यता ने हमारी सोच  भी धूमिल  कर रखी है क्योंकि हम  तो वह भारतीय  हैं जो विदेशी त्योहारों में भी देश की खुशबू घोल देते हैं आज की असली खुशी तो दादाजी ने साझा की.... छोटी और ओछी सोच से परे उन्होंने मनाया है वैलेंटाइन डे। समाप्‍त |

 

संतोष की दूसरी कहानी यादों का आलिंगन

आज पूरे बारह साल बाद मैंने देखा उसे ' वही रंग रुप वही चाल और वही तेवर  बाजार में  अपनी कार से उतर कर फल वाले से महंगे दाम पर बहस करते  सोचा जाकर मिलूँ   फिर मैं... मैं तो आज भी वही हूँ |
अपने मुसीबत के दिनों को याद करके अब भी मेरी रुलाई फूट पडती है अगर इनके यहाँ माँ को काम ना मिलता तो पता नहीं क्या होता  |लेकिन नेहा ने हमेशा मुझे अपनी बहन की तरह रखा कभी उनके यहाँ मेहमान या कोई रिश्तेदार आते तो मैं माँ के साथ काम में हाथ बंटाने लग जाती तो वह मुझे अपने पास खींच कर ले जाती  " ए मूली  ! तू रहने दे ना  !! काम तो आई कर लेगी " फिर माँ से कहती " ऐ... आई तू कर ले न काम  !  मूली को क्यूँ लगाती है अपने साथ   "माँ भी हंस देती  " बेबी जी मैं कहाँ उसको बोलती हूँ.... वो तो खुद... " फिर वो मुझे अपने महंगे खिलौने और गुड़ियों से खिलाती साथ ही जब पढ़ने बैठती तो मुझे भी पढ़ाती स्कूल से ज्यादा तो इसी के साथ पढ़ी |
मुझे याद  ही नहीं आ रहा की नेहा ने कभी मुझे मेरे नाम से बुलाया हो मैं तो खुद भूल जाती कि मेरा नाम मालिनी है  |
चलो छोडो़... समय सभी को बदल देता है फिर उसकी शादी भी तो हो गई है  यही सोचकर मैं जैसे ही घर जाने को मुडी़ किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा ' पीछे मुड़ कर देखा तो नेहा थी  मैं सकुचा गई  " जी आप  !
अच्छा तो मैं  आ.. प हो गई  !?
मैं समझ गई कि नेहा ने मुझे पहचान लिया है तब मैंने मुस्कुरा कर नमस्ते किया तो उसने मेरे नमस्कार के लिए जुड़े हाथों पर थप्पड़ मार कर बोली  " तू तो अपने आप को बहुत बड़ा समझने लगी है  "
नहीं नहीं नेहा जी...
नहीं  ! तो ये आप  , नेहा जी.. सब क्या है  !! मतलब अब मैं तेरी बहन नहीं हूँ  !??
मुझे अफसोस हुआ कि ना जाने मैं क्या सोच रही थी नेहा का तो व्यवहार भी पहले जैसा ही है | फिर हम दोनों  कुछ  देर बातें  करते रहे कुछ उसने  अपना बताया कुछ मैंने खुद की सुनाई और जाते हुए उसने मुझे अपने घर का पता देते हुए कसम खिलाई की मै जरूर आऊँ उसके घर और वह अपने कार की तरफ चल दी मैं भी मुड़ने को थी पर देखा उसने कार का दरवाजा खोला फिर बंद करके दौड़ती हुई मेरी ओर लपकी और पास आकर कस के मुझे अपनी बांहों में भर लिया सुकूंन मुझे भी मिला उसके गले से लग कर लेकिन मैं और नेहा तो अपने बचपन की यादों से गले मिल रहे थे और हंहं बाजार में आते जाते लोगों के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था  |


संतोष शर्मा    शान
हाथरस ( उ. प्र. )

 


 

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