वर्ष 3 अंक 1 जनवरी से मार्च 2021
भारतीय लोककलाएँ काफ़ी प्राचीन है लोककला में विभिन्न कलाएँ है । हर प्रांत की अलग विशेष पहचान है उनकी वजह से हमेशा से ही भारत की कलाएं और हस्तशिल्प इसकी सांस्कृतिक और परम्परागत प्रभावशीलता को अभिव्यक्त करने का माध्यम बने रहे हैं। देश भर में फैले इसके 35 राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों की अपनी विशेष सांस्कृतिक और पारम्परिक पहचान है, जो वहां प्रचलित कला के भिन्न-भिन्न रूपों में दिखाई देती है। भारत के हर प्रदेश में कला की अपनी एक विशेष शैली और पद्धति है जिसे लोक कला के नाम से जाना जाता है। लोककला के अलावा भी परम्परागत कला का एक अन्य रूप है जो अलग-अलग जनजातियों और देहात के लोगों में प्रचलित है। इसे जनजातीय कला के रूप में वर्गीकृत किया गया है। भारत की लोक और जनजातीय कलाएं बहुत ही पारम्परिक और साधारण होने पर भी इतनी सजीव और प्रभावशाली हैं कि उनसे देश की समृद्ध विरासत का अनुमान स्वत: हो जाता है।
अपने परम्परागत सौंदर्य भाव और प्रामाणिकता के कारण भारतीय लोक कला की अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में संभावना बहुत प्रबल है। भारत की ग्रामीण लोक चित्रकारी के डिज़ाइन बहुत ही सुन्दर हैं जिसमें धार्मिक और आध्यात्मिक चित्रों को उभारा गया है। भारत की सर्वाधिक प्रसिद्ध लोक चित्रकलाएं है बिहार की मधुबनी चित्रकारी, ओडिशा राज्य की पताचित्र चित्रकारी, आन्ध्र प्रदेश की निर्मल चित्रकारी और इसी तरह लोक के अन्य रूप हैं। तथापि, लोक कला केवल चित्रकारी तक ही सीमित नहीं है। इसके अन्य रूप भी हैं जैसे कि मिट्टी के बर्तन, गृह सज्जा, जेवर, कपड़ा डिज़ाइन आदि। वास्तव में भारत के कुछ प्रदेशों में बने मिट्टी के बर्तन तो अपने विशिष्ट और परम्परागत सौंदर्य के कारण विदेशी पर्यटकों के बीच बहुत ही लोकप्रिय हैं।
इसके अलावा, भारत के आंचलिक नृत्य जैसे कि पंजाब का भांगडा, गुजरात का डांडिया, असम को बिहु नृत्य आदि भी, जो कि उन प्रदेशों की सांस्कृतिक विरासत को अभिव्यक्त करने हैं, भारतीय लोक कला के क्षेत्र के प्रमुख दावेदार हैं। इन लोक नृत्यों के माध्यम से लोग हर मौके जैसे कि नई ऋतु का स्वागत, बच्चे का जन्म, शादी, त्योहार आदि पर अपना उल्लास व्यक्त करते हैं। भारत सरकार और संस्थाओं ने कला के उन रूपों को बढ़ावा देने का हर प्रयास किया है, जो भारत की सांस्कृतिक पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
कला के उत्थान के लिए किए गए भारत सरकार और अन्य संगठनों के सतत प्रयासों की वजह से ही लोक कला की भांति जनजातीय कला में पर्याप्त रूप से प्रगति हुई है। जनजातीय कला सामान्यत: ग्रामीण इलाकों में देखी गई उस सृजनात्मक ऊर्जा को प्रतिबिम्बित करती है जो जनजातीय लोगों को शिल्पकारिता के लिए प्रेरित करती है। जनजातीय कला कई रूपों में मौजूद है जैसे कि भित्ति चित्र, कबीला नृत्य, कबीला संगीत आदि आदि।
भारतीय लोक कला मूलतः गाँव क्षंत्रों में जनसामान्य और आदिवासी विशिष्ट समूहों द्वारा धारित एवं संरक्षित कला है। गाँव के परिवेश और लोक संस्कृति में व्याप्त रचनात्मक आचार व्यवहार कला तत्व के रूप में परिणत हो लोक कलाओं को समृद्ध करते हैं। परंपरागत तौर पर लोक कला क्षेत्र अथवा समुदाय विशेष के लोगों द्वारा किया गया वह कलाकर्म है जिसके मूल में शुभ का विचार होता है और जो अवसर विशेष से जुडे अनुष्ठानों एवं आवश्यकताओं को सम्पन्न करने हेतु किया
उसका इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि भारतीय ग्रामीण सभ्यता का। सिन्धु घाटी की सभ्यता से मिले अवशेशो को यदि भारतीय लोक कला के आरम्भिक नमूने मना जाय तो यह परम्परा ईसा से लगभग तीन हजार साल पुरानी मानी जा सकती है। लोक कलाकारो ने लगभग प्रत्येक काल मे लोक कलाकृतियो का सृजन किया होगा परन्तु वे नमूने आज उपलब्ध नही है। भारतीय लोककलाएँ विदेशी लोगो में भी आकर्षण पैदा करती है ।
अलका पाण्डेय मुम्बई
0 टिप्पणियाँ