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हम सभी जिस व्यवस्था में रहते है, वहां संतोषम परम सुखम, पैर उतना ही फैलाइए जितनी चादर लंबी हो जैसी बाते सिखाया जाता है। कुल मिलाकर इच्छाओं को कम करने को सिखाया जाता है। मेरे विचार से थोड़ा इससे हटकर सोचना चाहिए। हम कुछ भी एक्स्ट्रा चाहते है और उसको पाने की कोशिश करते है तो दूसरों से हम एक कदम आगे हो जाते है और यदि वो कोशिश लंबे समय तक करते रहते है तो एक ऐसे वृक्ष बनकर उभरते है जिसके नीचे काफी लोग शरण पाते है। हमें दूसरों के लिए ही आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए। कुल मिलाकर संतोषम ...की भावना से आगे बढ़ना है, इच्छाओं का विस्तार करना है।
किसी भी प्रकार की सफलता का बीज है इच्छा। यह जितनी दृढ़ और बलवती होगी, उसे प्राप्त करने के संकल्प उतने ही मजबूत होंगे। ऐसे में, उसे प्राप्त करना भी उतना ही सहज हो जाएगा। इसके विपरीत इच्छाओं की शिथिलता हमारे व्यक्तित्व को गुणरहित बना देती है। शोधों की मानें, तो नववर्ष पर जितने लोग लक्ष्य निर्धारित करते हैं, उनमें से 92 प्रतिशत इच्छा की दृढ़ता के अभाव में उन्हें हासिल नहीं कर पाते। ऐसा इसलिए होता है कि निर्णय लेने की भी दृढ़ता नहीं होती, सदैव कल पर टालते रहते है। अपने कम्फर्ट जोन को त्याग नहीं पाते, उपलब्धियां कम्फर्ट के बाहर ही मिलती है। हम कुछ भी एक्स्ट्रा करते है न, तो धीरे धीरे करके अपने समकक्षों से काफी आगे हो जातो है। सिर्फ 1% ही दूसरों से बेहतर किया जाय तो एक समय बाद हमें बहुत आगे कर सकता है। हमें अपने भविष्य का एक आइडियल व्यक्तित्व बनाकर रखना चाहिए। प्रत्येक दिन स्वयं को मॉनिटर करना है कि हम जो कर रहे है, वो उस काल्पनिक व्यक्तित्व की तरफ ले जा रहा है, या दूर। यदि दूर ले जा रहा है तो उसमें सुधार करना है। अच्छे पुस्तकों और अच्छे लोगों के सम्पर्क में रहना है। कब हम परिवर्तित हो जायेगे, कब हमारा व्यक्तित्व बड़ा हो जाएगा, कब दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत हो जाएंगे, कब दूसरे लोग का हमसे भला होने लगेगा, पता ही नहीं चलेगा।
विजय शंकर सिंह
निरीक्षक, उत्तर प्रदेश पुलिस, लखनऊ
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विजय शंकर सिंह,करहिया गाजीपुर |
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