फगुआ की परंपरा जीवित है-अखिलेश द्विवेदी

वर्ष-:3 अंक -: 1 जनवरी 2021 से मार्च 2021

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"झमाझम बाजि रही पैजनियां... झमाझम बाजि रही पैजनियां...
काहे की तोहरी पांव पैजनियां
काहे कमर करधानिया
काहे की तोहरी मोहर माला
काहे की नाक नथुनियाँ....
झमाझम बाजि रही पैजनियां....."
उपरोक्त फगुआ गीत की पंक्तियां पढ़कर कितने लोगों के होठों पर मुस्कान फैल गयी होगी और गाँव की होली याद आ गयी होगी।
अब न तो फूलों के बने रंग हैं ,न ही शुद्ध अबीर और न ही ढोलक की थाप और झीके-मंजीरे पर एक-दूसरे से सवाल -जवाब करते हुए फगुआ गाते जोड़ीदार.....
किंतु दिल्ली जैसे महानगर में कमाने-खाने आये हम पुरबिहों ने अभी यह परंपरा जीवित रखी है।
हमें बसंत पंचमी आते ही श्री राम प्रताप यादव (दादा)का इंतजार रहता है।वह नौकरी के कारण नोएडा में रहते हैं।वह आते हैं और  हम सब फगुआ की शुरुआत कर देते हैं।प्रेम नाई की ढ़ोलक, सोमनाथ मौर्य जी का मंजीरा और मेरा झींका उठता है।फैजाबाद के विजय विकल जी इस वर्ष कोरोना के कारण नहीं आ पाए।वह लोक गायक और कीर्तनकार हैं।राम निहोरे जी,झांगा भाई,अजय पंडित जी,हरीश जी,राजेन्द्र जी,शिवकुमार जी भी अपने पिताजी की जगह उपस्थित रहते हैं और भी बहुत से मित्र हैं जो बाद में जुड़ेंगे।राजेश जी,रमेश जी,राम बहादुर जी,सजंय जी,अजय जी,अमरेश जी,महात्मा जी आदि कारवां बढ़ाएंगे।
वंदना की शुरुआत मैं करता हूँ-
"सुमिरन करूँ आदि भवानी का..."
फिर क्या था।मित्रों ने फगुओ की झड़ी लगा दी।
"झमाझम बाजि रही पैजनियां"
"बन का निकरी गये दोऊ भाई"
"रथ का निरखत जात जटायु"
"वृंदावन देश देखाव रसिया"
"आज मैं हरि से अस्त्र गहैइहौं"
"राजन मानों बचन हमारो"
"सेजिया फूलों से अरघानी"
"होली खेलें रघुबीरा अवध मा"

........और न जाने कितने गीत भाइयों ने गाये।दादा जब कान में उंगली लगाकर गाते हैं तो लगता वह गाते-गाते खो जाते हैं।लगता कि हम दिल्ली में नहीं अपने गाँव में हैं।अब जो शुरुआत हुई है वह होली के आठ दिन बाद तक चलेगी,जिसे आठों कहते हैं।
दिल्ली में विशेष रूप से जहां इस समय मैं हूँ नांगलोई में व उसके आसपास....हजारों की संख्या में रायबरेली,अमेठी,सुल्तानपुर, प्रतापगढ़,फतेपुर,इलाहाबाद और बाराबंकी आदि के लोग रहते हैं।आज से बारी-बारी से हमारे सबके घरों में ढोलक बजेगी और फगुआ का क्रम चलता रहेगा।चाय-नमकीन,चिप्स-पापड़,गुझिया,कहीं-कहीं भांग का शर्बत मिलेगा।अबीर लगेगी।इसके साथ न..न करते-करते कोई रंगबाजी कर ही देगा।इस हल्की सर्दी में रंग पड़ने पर झूठी नाराजगी दिखाते हुए अगले दिन हम सब फिर किसी पुरबिहा के घर मिलेंगे और वही फगुओं की बौछार शुरू...
अभी हम लोगों ने इस परंपरा को जीवित रखा है। आशा है भावी पीढ़ी भी इस परंपरा को आगे बढ़ाएगी।

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अखिलेश द्विवेदी


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