वर्ष-:3 अंक -: 1 जनवरी 2021 से मार्च 2021
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कहानी
‘‘माँ, नाराज़ हो?’’ राम सरन ने सुबकती हुई माँ के कंधे पर हाथ रखा। सती ने सिर उठाकर देखा। दोनों बेटे अपराधी बने सामने खड़े थे। वह तड़प कर कुर्सी से उठी और दोनों बाजू फैलाकर बेटों को कलेजे से लगा लिया। इस बार छोटे बेटे मोनू ने पूछा,
‘‘नाराज़ हो माँ? हमने कुछ गलत किया क्या?? उस आदमी को देखकर ही हमें गुस्सा आ गया था।’’
‘‘नहीं बेटा! तुम दोनों ने वही किया जो तुम्हें करना चाहिए था। फिर भी वह तुम्हारा बाप है और इस समय बिल्कुल लाचार है। कहाँ जाएगा? लोग दरवाजे पर आए जानवर पर भी दया करते हैं। बस यही सोच रही थी।’’
‘‘नाराज मत होना माँ! तुम कहती हो तो हम उसे वापस बुला लाते हैं, पर हमारे बाप की जगह तो वह कभी ले नहीं पायेगा न? तुम्हारी तुम जानो।’’ राम सरन बोला
‘‘पड़ा रहने दो उसे बाहर के कमरे में। दो रोटी खा लिया करेगा। क्या कमी है हमारे पास अब। उसे तो परमात्मा ने उसके कर्मों का फल दे ही दिया है।’’ सती की आँखों में चमक आ गई और चेहरा खिल गया।
‘‘ठीक है माँ! तुम कहती हो तो हम उसे खोज लाते हैं। तुम जी छोटा न करो। बस, खुश रहो। हमारे लिए तो तुम्हीं भगवान हो। चल मोनू।’’ रामू ने भाई को बाजू से पकड़ा और माँ की खुशी के लिए उस बाप को तलाशने के लिए दोनों भाई दरवाजे से बाहर निकल गये, जो कभी उन्हें भूखों मरने के लिए बेसहारा छोड़कर किसी दूसरी औरत के पास चला गया था। बरसों बाद उसे अपने बच्चों और घर की याद तब आई जब उसे बीमार और लाचार हालत में कहीं कोई सहारा नही था। बीमारी के कारण नौकरी छूट गई तो वह दूसरी औरत भी सारा सामान बटोर रातो-रात कहाँ गायब हो गई पता ही नहीं चला।
आज मोनू अट्ठारह वर्ष का था और राम सरन बीस वर्ष का। केसर की इसी साल शादी कर दी गई थी। तब रामू (राम सरन) दस साल का था और मोनू आठ का। छोटी केसर चार साल की थी जब उनका पिता दूसरी औरत के पास चला गया था। रोज की कच-कच में रामू सब समझने लगा था। बची कसर मुहल्ले वालों ने पूरी कर दीं। उन्हें रोज ही गली-मुहल्ले में सुनने को मिलता कि उनका बाप दूसरी औरत के साथ रहता है।
समय बीता, दादा भी चल दिए और अब घर में माँ बेटे ही थे। वे दोनों पढ़ भी रहे थे और माँ के साथ काम में भी हाथ बटा रहे थे। ऐसे समय में उस भगौड़े बाप को वापस लौटा देखकर दोनों का खून खौल उठा और वे माँ के कुछ कहने से पहले ही, धक्के देकर बाप को बहार निकाल चुके थे।
सती सोच रही थी, चूक कहाँ हुई होगी। उसने तो कभी सास-ससुर के सामने मुँह भी नहीं खोला था। बहुत पढ़ी-लिखी तो नहीं थी वह, फिर भी घर की मर्यादा का ध्यान तो उसे रहता ही था।
हरी राम एक सरकारी कार्यालय में चपरासी था। क्या बांका गबरू था वह तब, जब सती ब्याह कर इस घर में आई थी। सती! सुरसती यानि सरस्वती जो मायके ससुराल में सती ही बनकर रह गई थी, जान ही नहीं पाई कि उसका गबरू कब दूसरी का हो गया। पता ही नहीं चला और घर में तीन बच्चे भी आ गए, पर इससे क्या? धीरे-धीरे हरी का समय कहीं और गुजरने लगा और इसके साथ ही कमाई भी पराई हो गई और घर में फाके होने लगे। इस समय तक सास गुजर चुकी थी। बेटे के रंग-ढंग देखकर ससुर ने दो कमरों का आधा कच्चा, आधा पक्का मकान बहू के नाम कर दिया। हरी राम कई दिन से अपने बापू पर दबाव बना रहा था कि मकान उसके नाम कर दे। उस दिन बाप-बेटे में इसी मुद्दे पर बहस हो ही गई,
‘‘बापू.......’’
‘‘हूँ....!’’ बापू ने हुक्के की नड़ी मुँह से हटाए बिना हुँकारा भरा।
‘‘वो...मैं कह रहा था कि, तुम अब रोज ही बीमार रहते हो।’’
‘‘तो?’’
‘‘दो बहने भी हैं, मकान का कुछ कर देते तो......!’’ उसने बात अधूरी छोड़ दी
‘‘वो तो मैं कर चुका हूँ। कल ही तो कर के आया हूँ बहू के नाम। वैसे तुम क्या सोचते हो, मैं मरने वाला हूँ?’’ बापू ने हुक्के से मुँह हटाते हुए जवाब दिया और फिर लापरवाही से हुक्का पीने लगा। हरी राम को यह उम्मीद बापू से कतई नहीं थी। पहले तो वह सकपकाकर बापू को देखता रहा, फिर एकाएक भड़क उठा,
‘‘तुम्हें अपने बेटे से ज्यादा ये पराई लड़की प्यारी हो गई?’’
‘‘हाँ! अब तो है ही। मैं तुम्हारे रंग-ढंग देख ही रहा हूँ। दो-दो दिन घर नहीं आते। घर में खर्चा नहीं देते। यह नहीं सोचा कि घर के लोग कैसे जी रहे हैं। यह लड़की ही पराई है न? यह बाप तो तुम्हारा है और ये बच्चे भी तुम्हारे हैं। यह कच्चा-पक्का मकान ही सही, छत तो है हमारे सिर पर।’’ कहकर बापू उठकर बाहर निकल गया।
हरी अपने बापू को अच्छी तरह जानता था। अब कुछ नहीं हो सकता, उसने अपना सारा गुस्सा सती पर निकाला। ‘‘हरामखोर! यह सब तेरा ही किया-धरा है। मेरे बाप को मेरे खिलाफ कर दिया। ले...’’ और हरी राम के लात-घूंसे चलने लगे तो बच्चों ने चिल्लाना शुरू कर दिया। रामू रोते-रोते माँ के निकट गया तो एक लात उसके भी पड़ गई। सती अपना दर्द भूलकर रामू की तरफ लपकी। गुस्से में बुड़बुड़ाता हरी उसी समय से उस दूसरी औरत के साथ रहने लगा और लौटकर नहीं आया।
गला सूखने लगा तो सती ने उठकर पानी पिया और फिर उसी कुर्सी पर आ बैठी जहाँ बेटे उसे छोड़ गए थे।
वह दिन चलचित्र की तरह उसके सामने नाच उठा जिस दिन हरी घर छोड़कर गया था। घर में राशन भी खतम था और उसके पास कुछ बचा भी नहीं था। उसने सोचा था कि पति के घर आने पर वह उससे चिरौरी करके कुछ पैसे ले ही लेगी ताकि राशन ला सके, पर सब कुछ उलट-पलट गया। हरी ने जाते-जाते साफ कह दिया था कि वह अब कभी लौटकर इस घर में नहीं आएगा और वह नहीं आया।
उस दिन संध्या के भोजन के लिए जब उसने रसोईघर खंगाला तो मुश्किल से दो समय के लिए आटा और कुछ थोड़ी दाल बची थी। क्या करे, हरी के स्वभाव को वह जानती थी, कह गया है तो अब कभी नहीं आएगा। तीन बच्चे, ससुर और उसका स्वयं का पेट? क्या होगा अब......?? फिर भी रात का भोजन बनाकर उसने जैसे-तैसे सब को खिलाया और एक रोटी खुद भी खाई।
झगड़ा होना यूँ तो रोज की ही बात थी पर हरी की वह घोषणा.....? रात भर सती को नींद नहीं आई। उधर ससुर भी जाग रहे थे। वे भी अपने बेटे के जिद्दी स्वभाव के कारण चिंतित थे परन्तु वे यह भी जानते थे कि मकान हरी के नाम करने के बाद उन पाँचों प्राणियों को सड़क पर आना ही है।
समस्या की गम्भीरता को जानते हुए ससुर-बहू दोनों अपने-अपने खोल में चक्कर खा रहे थे। रात के बचे खाने से दिन का काम चलाना विवशता थी ताकि बचा राशन रात के काम आ सके। बच्चे क्या जाने क्या मुसीबत आई है, अचानक सती ने अल्मारी खंगालनी शुरू कर दी। पर अल्मारी में था क्या जो उसे मिल जाता। दरअसल कभी कभी बचे पैसे वह अल्मारी के किसी कोने में डाल दिया करती। वह उन्हीं को तलाश कर रही थी। सारे कोने खंगालने के बाद सती को कुछ सिक्के और दस-दस के दो नोट मिले। सती ने पैसे गिने, कुल मिलाकर वे पैंतालीस रुपए थे। सती ने वे पैसे सम्भालकर रुमाल में बाँध लिए, क्या होगा इससे?
शाम के पाँच बज गए थे, आज बापू ने भी चाय नहीं मांगी थी। ना ही सती को याद आया कि बापू को चाय देनी है। सती ने राशन के लिए थैला उठाया और बाहर निकल गई। चलते-चलते वह गली से बाहर निकल आई पर उसे यह समझ में नहीं आ रहा था कि वह करे क्या? इन पैंतालीस रुपयों में क्या होगा? उसे यह भी पता नहीं था कि वह जा किधर रही है। बस चल रही है उसे लग रहा था कि वह किसी के पीछे चली जा रही है। दिन बड़े थे इसलिए अंधेरा होने में अभी देर थी। बहुत समय हो गया था उसे चलते-चलते।
‘‘अरे किधर जा रही हो बेटी, सामने देखो बैल आ रहा है। एक तरफ हटो।’’ एक तरफ से आती आवाज़ ने उसे चैंका दिया। उसने सामने देखा, वह सब्ज़ी मण्डी में खड़ी थी। तभी किसी ने उसे धक्का देकर एक तरफ हटा दिया, ‘‘नींद में हो क्या?’’
उसने देखा एक बुजुर्ग से लगने वाले व्यक्ति ने उसे धक्का न दिया होता तो वह सामने से आते बैल के सामने पड़ जाती और बैल उसे मार भी सकता था। वह हारकर एक बंद दुकान के बाहर बैठ गई। वह बुजुर्ग उसके पास आकर बैठ गए। उन्हें लग रहा था कि सामने वाली महिला बहुत अधिक परेशान है।
‘‘क्या हुआ बेटी? मैं कोई मदद कर सकता हूँ क्या तुम्हारी?’’
‘‘आँ, हाँ।......नहीं-नहीं। मैं ठीक हूँ।’’ उसने अपने हाथ में पकड़े थैले को टटोला। उसे लगा कि शायद उसके पैसे न गिर गए हों। रुमाल को सलामत देखकर उसके चेहरे पर एक सुकून की रेखा दौड़ गई। जो तुरन्त ही वापस लौट गई। वह फिर सोचने लगी कि इन पैसों का क्या होगा। ये तो चार दिन के राशन के लिए भी पर्याप्त नहीं हैं। निकट बैठे सज्जन ने फिर पूछा, ‘‘सब्जी लेने आई हो क्या? हाँ! यह ठीक समय है। इस समय सब्ज़ी सस्ती मिलती है। जाओ, ले लो। ये ठेले वाले घर जाने के लिए बची हुई सब्जी सस्ती दे देते हैं।’’ कहकर वे एक तरफ हो लिए और सती एक ठेले के पास जा खड़ी हुई जिस पर थोड़े-से मटर रखे थे।
‘‘कितने के दे रहे हो?’’
‘‘ले लो बहन। सारे दस रुपए में दे दूँगा। देखो एकदम ताजा मटर है।’’ पर सती कुछ सोच नहीं पा रही थी। तभी ठेले वाला फिर बोला, ‘‘चलो नौ रुपए दो।’’ और उसने अन्यमनस्क-सी सती के हाथ से थैला ले लिया और सारे मटर उस में डालकर पैसों के लिए हाथ फैला दिए। सती ने बिना कुछ सोचे उसे नौ रुपए गिनकर दे दिए। मटर लेकर सती आगे बढ़ गई और कुछ और सब्ज़ियाँ लेकर वापस लौटने लगी। पर अभी उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह इन सब्जियों का करेगी क्या?
जब वह सब्जी से भरा थैला लेकर घर लौटी तो ससुर भी परेशान हो गए। ‘‘बहू! क्या करोगी इतनी सब्जियों का?’’
‘‘पता नहीं।’’ उसका उत्तर था। फिर वह रसोई में चली गई। बच्चे खाना मांगने लगे थे। वे तो बच्चे ही थे। लगता है उन्हें पिछले कल की बातें याद ही नहीं थीं। खाना बनने तक उसने बच्चों को मटर छीलने के लिए बैठा दिया। अब सती ने रात ही रात में पूरी सब्जियाँ धो-काट कर रख दीं। पर अभी भी उसे समझ में नहीं आ रहा था कि इन का वह करेगी क्या। पर अगली सुबह वह उन कटी सब्ज़ियों को लेकर एक दूर के मुहल्ले में चली गई और घरों में जाकर उसने वे सारी कटी सब्जियाँ बेच दीं।
सौ रुपए हाथ में आते ही सती की जान में जान आई। मन में एक नई आशा का संचार हुआ। दूसरे दिन फिर वह सब्जी मण्डी में थी। अब ये हर रोज का नियम बन गर्या। घर में बच्चे और ससुर भी काम में सती का हाथ बटाने लगे। घर के खर्च की अब चिन्ता नहीं रही। थोड़े ही दिनों में सती को पूरे शहर से अग्रिम आर्डर मिलने लगे। काम बढ़ गया तो उसने मुहल्ले की कुछ लड़कियाँ सहायक रख लीं।
काम और बढ़ा तो सब्जियाँ बचने लगीं। अब सती ने अपने ज्ञान का उपयोग करना ठीक समझा और अचार बनाने लगी। कुछ ही वर्षों में सती के बनाये ताजे और स्वादिष्ट अचार की ख्याति फैलने लगी। आय बढ़ी तो घर भी पक्का हो गया और बच्चे भी निरंतर पढ़ते रहे। पूरे नगर में सती की कहानी बड़े आदर से सुनाई जाती और जहाँ भी वह जा खड़ी होती उसे भरपूर सम्मान दिया जाता। इसी बीच ससुर भी गोलोकवासी हो गए। बेटी का विवाह भी हो गया और जीवन व्यवस्थित हो चुका था। ऐसे में हरी राम का वापस घर लौटना उसे फिर से अस्त-व्यस्त कर गया।
उसने चैक कर देखा, काफी समय बीत गया था बच्चे लौटकर नहीं आए थे। पता नहीं कहाँ चले गए होंगे? बच्चों को भी थोड़ा तो सोचना चाहिए था। इतनी गर्मी नहीं दिखानी चाहिए न। उसके भीतर की पत्नी ने सिर उठाया तो एक आहत स्त्री ने तुरन्त ही उसका गला पकड़ लिया, ‘दूसरी स्त्री के लिए उसने तुम्हारे साथ क्या अत्याचार नहीं किया, भूल गईं?’
‘बहक तो कोई भी सकता है।’ पत्नी ने दलील दी। तभी स्त्री ने कराहकर उसे हरी राम द्वारा की गई पिटाई से लगे घाव दिखाए। वह कराह उठी। उठकर कमरे में जाने लगी। लापरवाही के कारण दरवाजे से ठोकर लगी तो चैंक कर देखा गली में रामू और मोनू पिता को साथ लिए घर की ओर आ रहे थे। वह झटके से उठकर बाहर के कमरे का दरवाजा खोलकर वहाँ पड़ी खाट पर का बिस्तर ठीक करने लगी। तभी वह घायल स्त्री फिर फुफकार उठी। अब तक तीनों कमरे में पहुँच चुके थे।
‘‘पटक दो इसे यहीं।’’ वह बेटों की ओर घूमी, ‘‘इसे कह दो, अन्दर आने की कोशिश न करे और इसके लिए पानी वगैरह रख दो। इसे लगा होगा कि हम इसके बिना भूखे मर जायेंगे। पर यह भूल गया था कि हमारे भी हाथ तो हैं न।’’ और उसने आंगन का दरवाजा धड़ाक से बंद कर दिया।
आशा शैली
सम्पादक शैलसूत्र,
इन्दिरा नगर-2, लालकुआँ,
जिला नैनीताल-262402 (उत्तराखण्ड)
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