9 अक्टूबर-सीमा सिंह

 9 अक्टूबर, ऐसी तिथि जिसे हज़ारों बार अपनी यादों से खुरच-खुरच निकाल देना चाहा. सोचा, नहीं देखूंगी तारीख तो नहीं आएगी याद भी. पर ना तिथि रुकी मेरे रोके, ना यादें...

 

9 अक्टूबर 1982... हां यही तो थी. सुबह हर दिन जैसी सामान्य. एक बार भी आने वाले तूफ़ान का अहसास ना कराया. बड़े प्यार से मम्मी ने सिर में हाथ फिरा कर जगाया था, “उठ जा बेटा, छः बज गए.”एक बार ना लगा अब ये आवाज़ ये स्पर्श दुबारा कभी नहीं मिलेगा. पता भी होता तो क्या कर सकते थे? शायद कुछ कर पाते... मम्मी को अकेला तो ना छोड़ते कम से कम... काश...
सुबह सब कुछ बड़ी शांति से चल रहा था. एक बार भी ऐसा कुछ ना हुआ जो उस दिन को रोज से अलग बनाता. सब उठ कर अपने अपने कामों में लग गए हमेशा के जैसे. अपना अपना नाश्ता, अपना अपना टिफिन लिया हमेशा की तरह. स्कूल को निकल पड़े हमेशा की तरह. मम्मी-पापा बाद में निकले होंगे साथ-साथ हमेशा की तरह...
दोपहर भी हमेशा जैसे थी. बड़ी बहने स्कूल से घर आ चुकी थी हमेशा की तरह. मुझसे आधा घंटा पहले जो छूट जाती थी. फिर मैं, और सबके बाद भैया. हम चारों ने साथ खाना खाया हमेशा की तरह. बड़ी दीदी अपने घर थी, जीजाजी और दोनों बच्चों के साथ, हमेशा की तरह. उनकी शादी को इतना समय बीत चुका था कि हम उनके बिना रहना सीख ही चुके थे लगभग. फिर पास में ही थी. जीजी के जाने से परिवार छोटा नहीं और बड़ा हो गया था हमारा. जीजाजी और दो बच्चे भी शामिल हो चुके थे हमारे परिवार में. फिर एक रुपया किराया भर की दूरी पर ही तो थी. जब दिल किया चले गए. किसी बड़े को साथ जाने जरूरत ना होती थी. वो दौर भी ऐसा था, उम्र में बड़ा हर व्यक्ति, चाहें अनजान ही क्यों ना हो, अभिभावक बन जाता था. अब तक सब कुछ हमेशा जैसा चल रहा था... मनु जीजी, जो हम चारों में सब से बड़ी थीं और मम्मी पापा की अनुपस्थिति में हमारी अभिभावक भी, मम्मी का खाना पैक कर उनके पास उनके क्लिनिक चल पड़ीं. मेरी एक सखी का घर रास्ते में पड़ता था और जीजी सायकिल से जाने वाली थीं. तो थोड़ी सी खुशामद के बाद वो अपने साथ ले जाकर उसके घर छोड़ने को तैयार हो गईं थी, इस शर्त पर कि गली के मोड़ पर उतार कर निकल जाएँगी वो. बस यहीं से वो दिन अलग हो चला था हमेशा से...
दीदी ने पांच बजे वापस जाते समय लेते हुए जाने का कहा था. मगर तीन भी ना बज पाए थे और भैया बदहवास से आए और बोले, “चल गुड़िया चल, मम्मी की तबियत खराब है. उनको अस्पताल लेकर गए हैं...”
मुझे लगा भैया तंग करने के लिए आए हैं जिस से घर वापस जल्दी ले जा सके. मुझे आज भी अपना उत्तर याद है जो भैया से पलट कर कहा था मैंने, “इतनी बुद्धू नहीं हूँ! मम्मी खुद डॉक्टर हैं, वो अस्पताल नहीं जाती बीमार होने पर...”मगर भैया के बार बार कहने पर और उनकी घबराहट ने यकीन दिला दिया कि कुछ तो हुआ है. हम दोनो चले ही थे कि भैया से पूछा मैंने, “बड़ी जीजी को बताया किसी ने?” भैया के इनकार करने पर मुझे लगा कि उनको बताना चाहिए. मम्मी तो हम सबकी बराबर हैं. बस मैं वहीं से बड़ी बहन को बुलाने चली गई, और एक घंटे में जीजी, जीजाजी और बच्चों के साथ घर वापस भी आ गई थी.
मगर... इस एक-डेढ़ घंटे में तो हमारी दुनिया ही बदल चुकी थी. अपनी गुड़िया को एक नज़र देखने की इच्छा लिए मम्मी जा चुकी थीं भगवान के घर. हमें जो मिला, उसे तो लोग मिट्टी कह रहे थे...
मनु जीजी जब मम्मी का खाना लेकर उनके पास पहुंची तो मम्मी फर्श पर गिरी हुई थीं. उनको उलटी हुई थी शायद. आस पास के लोगों की मदद से अस्पताल पहुँचाया और पापा को स्कूल से बुलवाया. डॉक्टर ने कहा, “ह्रदयाघात था भीषण... हम इनको बचा नहीं सके.”
पल भर में हमारा परिवार तिनका तिनका बिखर गया... जो पापा हर छोटी बड़ी बात में ‘ईश्वरेच्छा बलीयसी’ कहा कर करते थे, उनको पहली ईश्वर से शिकायत करते देखा था...  बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोते देखा. जिन मम्मी के बिना ना सुबह होती थी ना रात, अब उनके बिना रहना था जीवन भर. सबसे छोटी होने के बाद भी मुझे पूरा-पूरा अहसास था कि अब ज़िन्दगी बहुत मुश्किल हो जायेगी...माँ के जाने से जो रीतापन घर में मन और जीवन आ चुका था उसका कोई भराव नहीं था... अब कोई नहीं कहेगा ‘उठ जा बेटा छः बज गए’.

सीमा सिंह
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ई मेल – libra.singhseema@gmail.com

 


 

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