राजाकांत की कलम से


 "बंशीलाल जितना सरल स्वभाव के थे, उनकी पत्नी उतना ही कर्कश और झगड़ालू मिजाज की थी। बंशीलाल अध्यात्मिक थे,वे रोज सत्संग सुनते तो पत्नी रोज गाली देती और झगड़ा करती।बंशीलाल जो बोलते ठीक उसके उल्टा काम करती।बंशीलाल बोलते आज खाना नही बनेगा उस दिन खाना बनाती, और बोलते आज खाना बनेगा उस दिन नहीं बनाती ।बंशीलाल को खाना पर साधु समाज़ को बुलाना था,वो सोच में पड़ गये की पत्नी सुनेगी तो गाली देगी क्या करें।

वो पत्नी से बोले सुनती हो आज मेरा खाना नही बनेगा किसी और के यहां खाने पर जाएंगे,तो पत्नी बोली ठीक है ।पत्नी खुश होकर खाना बनाई कि आज उनको नही खाना है ,तब तक बंशीलाल ने साधु समाज को खाने पर
बुला लिए और खाना खिलाने लगे । जब पत्नी ने देखा कि ये साधु संत लोग खाना खा रहे है तो अपना गाली देना शुरु की।"गाय खाऊ, सूअर खाऊ,डांगर खाऊ नतिया"।

इतना सुनते ही साधु लोग उठ कर खड़े हो गए,बोले हम लोग नहीं खायेंगे तो बंशीलाल बोले बाबा ये अपने भाषा में बोल रही है कि"गा के खाईये सूर में गाईये डमरू बजा के खाईये और नाचिये" तब साधु समाज़ खाना खा के साधुवाद दिये और चले गए ।


गज़ल 
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ना लागे मेरा दिल तुम बिन
है जीना अब मुश्किल तुम बिन

तेरी यादों में मैं हर पल 
मरती हूँ तिल तिल तुम बिन

सज धज कर बैठी हूँ कब से
चुनरी हुई ना धूमिल तुम बिन

सब कलियाँ खिलने को है 
मैं कैसे जाऊं खिल तुम बिन

बीती तन्हा में अब रातें 
दिन लगता है बोझिल तुम बिन

मुश्किल होगा पाना मंजिल
ना होगा कुछ हासिल तुम बिन

इस रंग भरे महफिल में अब
"कांता"कैसे शामिल तुम बिन
 
गज़ल 
2 2 2 2 2 2 2 2
--------------
ना लागे मेरा दिल तुम बिन
है जीना अब मुश्किल तुम बिन

 हर पल मैं तेरी यादों में
मरती हूँ तिल तिल कर तुम बिन

सज धज कर बैठी हूँ कब से
चुनरी न  हुई धूमिल तुम बिन

सब कलियाँ खिलने को आतुर  
कैसे खिल जाऊं मैं  तुम बिन

 रातें गुमसुम बीतें मेरी 
दिन लगता है बोझिल तुम बिन

मुश्किल होगा पाना मंजिल
ना होगा कुछ हासिल तुम बिन

इस रंग भरी  महफ़िल में भी 
"कांता" न हुई  शामिल तुम बिन


 

@राजकांता राज,
पटना (बिहार )
 

 

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