जिंदगी के मदिरालय-सुधा

 जिंदगी के मदिरालय में साकी बन के तू बैठ जरा,
टूटे बिखरे इन प्यालों को आलिंगन में भर भेंट जरा।
दुष्कर्मों की चिंगारी से मानवता है सुलग रही,
मदिरा उड़ेल सत्कर्मों की डूबी हो जिसमें सकल धरा।।
                       
झड़ गए हैं फूल सब खुशियों के मेरे इस बाग से,
सूखकर गिरने लगे पत्ते सभी अब शाख से।
रे मनुज बो बीज ऐसा फूटे अंकुर खुशहाली का,
सींच रक्त से फिर अपने भर जाऐ मन नवजीवन की आस से।।
                     
हाल मेरे देश का कुछ अजब हो गया है,
चाँद उतरा है जमीं पर समंदर आसमां हो गया है।
मिल जाता है ख़ाक में तन शमशान में जलने के बाद।
भस्म करके आबरू मां,बहन और बेटियों  की।
 हर मोहल्ला ही मेरा शमशान जैसा हो गया है।।

                 सुधा बसोर
            (वैशाली गाजियाबाद)


 

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