बैकुंठ धाम कहां पड़ता है?- दिव्‍याशं द्विवेदी

 कल सुबह-सुबह मेरे पास
एक फोन आया,
उधर से बड़ी मधुर ध्वनि में
एक सज्जन ने फरमाया,
द्विवेदी जी कैसे हैं?
मैं बैकुंठ धाम से बोल रहा हूं।
मैंने कहा क्षमा करें,
मैं आपको पहचान नहीं पाया।
यह बैकुंठ धाम कहां पड़ता है?
वे बोले वहीं
जहां आने से पहले
काम, क्रोध, लोभ, मोह
सब छोड़ना पड़ता है।
मैंने कहा महाराज समझ गया,
आप त्रिपाद विभूति से बोल रहे हैं ना,
वही जो विरजा नदी के किनारे बसता है
वे बोले हां, आप सही समझे
मैंने कहा बताएं?
हम आपको कैसे याद आए?
वे बोले श्री हरि विरजा नदी के तट पर
कवि सम्मेलन करवाना चाहते हैं
जिसमें आपसे संचालन और कुछ
कवि- कवियत्रियों को बुलवाना चाहते हैं।
मैंने कहा यह तो मेरा सौभाग्य है
आप जल्दी से नाम बताएं
वे मुस्कुराए बोले,
द्विवेदी जी श्री हरि पहले ही अपने
पसंदीदा कवियों की लिस्ट बना चुके हैं
और उसमें कुछ कवियों को तो
श्रीहरि आमंत्रण देकर यहां बुला भी चुके हैं
बाकी कुछ आपके साथ आएंगे
और कुछ आपके बाद आएंगे
लेकिन उनके नाम भी श्री हरि ही बताएंगे
मैंने थोड़ा सकुचाते हुए पूछा
महाराज मानदेय के बारे में कुछ बताएंगे
वे बोले आप जितनी अच्छी कविता सुनाएंगे ,
उतना अच्छा मानदेय पाएंगे,
और अगर श्रीहरि खुश हुए तो
आप जीवन मरण के चक्कर से मुक्त हो जाएंगे
मैं उनके इस आग्रह को मान गया
और श्रीहरि को मेरी कविता इतनी पसंद आई
कि मैं मानदेय के रूप में मोक्ष ही पा गया।।

 



 

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1 टिप्पणियाँ

Unknown ने कहा…
बहुत ही बढ़िया भाई। निश्चित रूप से ये कविता पापा ने ही तुम्हारे माध्यम से लिखवाई है।
-प्रज्ञा