आक्रोश-डॉ. सरला



    देख जग की रीति मन में मेरे,
    आक्रोश भर आया ।
    सागर के ऊफान ज्यों मन में,
    अरे तूफान सा आया ।
    चाहा था दुनिया के 
    कुरीतियों का,
    संहार कर डालेंगे ।
    अत्याचार ,अनाचार 
    और ढोंग को,
    हम नष्ट कर देंगे ।
    दुनिया का फिर से नये ढंग से ,
    निर्माण करेंगे ।
    ये तो बस ख्याली पुलाव बन गया ,
    कुछ भी ना कर सके ।
    कर ना सके कुछ भी मगर
    जो करना भी चाहा ,
    शायद हमारे पास बेहतर
    हौसला ना था ।
    आक्रोश और तूफान कोई
    काम ना आया ।
    कर ना सके कुछ क्या करें ,
    लेखनी ही थाम ली ।
    शब्दों को बना करके सहारा ,
    कागज़ पर ही उतार दी ।
    बढाना चाहती हूँ ,
    ये आक्रोश आगे ।
    मचा दे इक हलचल जहां में ,
    तोड़ दे बन्धन वो सारे ।
    लगे सदियों से जो हमपर ,
    उन सारी रूढ़ियों को, 
    ध्वस्त कर दें, मिटा डालें ।
    ना  हो  मानव समाज में ,
    कोई भी भूखा प्राणी ।
    ना ही बेसहारा ,बेआसरा ही ,
    रह जाये कोई भी जग में ।
    आओ नयी दुनिया बनायें ,
    जहाँ पर सब समान हों ।
    हो समाज समरुप ,
    ना कोई छोटा बड़ा हो ।
    दुनिया को जो नवचेतना दे,
    बदल डाले  जगत को ।
    सपनों को हकीकत में ,
    बदल डाले वो शक्ति चाहिए ।

स्वरचित रचना
         डॉ. सरला सिंह "स्निग्धा"
            दिल्ली।
मो नं 9650407240



एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ