देख जग की रीति मन में मेरे,
आक्रोश भर आया ।
सागर के ऊफान ज्यों मन में,
अरे तूफान सा आया ।
चाहा था दुनिया के
कुरीतियों का,
संहार कर डालेंगे ।
अत्याचार ,अनाचार
और ढोंग को,
हम नष्ट कर देंगे ।
दुनिया का फिर से नये ढंग से ,
निर्माण करेंगे ।
ये तो बस ख्याली पुलाव बन गया ,
कुछ भी ना कर सके ।
कर ना सके कुछ भी मगर
जो करना भी चाहा ,
शायद हमारे पास बेहतर
हौसला ना था ।
आक्रोश और तूफान कोई
काम ना आया ।
कर ना सके कुछ क्या करें ,
लेखनी ही थाम ली ।
शब्दों को बना करके सहारा ,
कागज़ पर ही उतार दी ।
बढाना चाहती हूँ ,
ये आक्रोश आगे ।
मचा दे इक हलचल जहां में ,
तोड़ दे बन्धन वो सारे ।
लगे सदियों से जो हमपर ,
उन सारी रूढ़ियों को,
ध्वस्त कर दें, मिटा डालें ।
ना हो मानव समाज में ,
कोई भी भूखा प्राणी ।
ना ही बेसहारा ,बेआसरा ही ,
रह जाये कोई भी जग में ।
आओ नयी दुनिया बनायें ,
जहाँ पर सब समान हों ।
हो समाज समरुप ,
ना कोई छोटा बड़ा हो ।
दुनिया को जो नवचेतना दे,
बदल डाले जगत को ।
सपनों को हकीकत में ,
बदल डाले वो शक्ति चाहिए ।
स्वरचित रचना
डॉ. सरला सिंह "स्निग्धा"
दिल्ली।
मो नं 9650407240
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