अविनाश अपने बॉस के जुल्म से बहुत परेशान था। उम्र हो चुकी थी तो अब कहीं जॉब छोड़ कर जाना मतलब अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा था। परिवार का खर्च और दोनों लड़कियों की शादी भी करनी थी। सब कुछ देर से होने पर उम्र बढ़ गई और और जिंदगी थोड़ी पीछे रह गई।
घर में पत्नी हर बार कुछ न कुछ नई वस्तुओं की लेने की चाह उन्हें और परेशान कर देती थी।बेटियों की पढ़ाई आजकल अच्छा एजुकेशन अच्छे कॉलेज एक स्टेटस बन गया है।लड़कियों के ख्वाब भी आसमान छूने लगे थे लेकिन पूरे कैसे होंगे। यह कौन सोचेगा.....?, ख्याली पुलाव की थाली रोज रात पलंग पर लेटते ही सामने आ जाती। सुबह होते ही भगवान का नाम लेने से पहले बॉस का खड़ूस चेहरा सामने आ जाता और दिन खराब हो जाता।बॉस भी अविनाश की मजबूरी को अच्छे से समझता इसीलिए वह अविनाश की कमजोरी का पूरा-पूरा फायदा उठाता।
पर कहे किससे... घर में कोई अविनाश की परेशानियों को समझने वाला नहीं था। ऑफिस में रह देके एक सुशील कुमार ही था जो उम्र में उनसे बहुत कम था पर दोस्त की तरह था तो वह उससे अपनी ऑफिस और परिवार की सारी कहानियां रोज लंच समय में सुनाकर अपना पेट खाने से भर लेते और दिमाग बातों से खाली कर लेते। उसके बाद फिर वह अपनी इम्यूनिटी बूस्ट कर काम पर लग जाते।
एक शाम को खाना खाते वक्त अपनी पत्नी से बात कर रहे थे। की बड़ी बेटी चहक कर आई और बोली- "पापा कल स्कूल में वाद विवाद प्रतियोगिता है, मुझे विपक्ष में बोलना है, जरा पढ़ो तो मैंने कैसा लिखा है। बेटी का विपक्ष भाषण पढ़कर अविनाश को एक ताकत की अनुभूति हुई। गलत बात का खुलकर विरोध किया गया था। बेटी की कलम उन्हें ताकत का एहसास करवा रही थी। दूसरे दिन अविनाश ऑफिस पहुंचा तो फिर वही बॉस की तिरस्कार भरी नजरें देख कुछ शब्द सुनने से पहले ही अविनाश ने अपना त्याग पत्र उठाया और जोर से चिल्ला पड़े- नहीं करनी मुझे यह नौकरी, क्या होगा दूसरी जगह कम तनख्वाह पर काम कर लूंगा,कम से कम इज्जत से तो जी लूंगा,आप मुझे पैसा देते हैं तो मैं आपको काम करके भी तो देता हूं, फिर इतनी झिड़क क्यों...?,
बॉस अविनाश के तेवर देख घबरा गया उसे उनके अनुभव की बहुत जरूरत थी। त्यागपत्र देख उसके पाँव लड़खड़ाने लगे।कहने लगा- क्षमा करें.. आप हमारे वरिष्ठ हैं, आपका सम्मान करना ही हमारा कर्तव्य है,भूल हो गई अविनाश जी।अपने बॉस से अपने लिए इतने इज्जत भरे शब्द जी सुनकर उन्हें ऐसा लगा जैसे किसी ने उन्हें एक बोतल खून चढ़ा दिया हो। आज उन्होंने अपने बेटी के कलम की ताकत को ही अपनी ताकत बना लिया था। वह गर्व से अपने स्थान पर बैठ गए। बॉस का व्यवहार अब उनके प्रति नम्र और आदर पूर्वक हो चुका था।वह मेज पर पड़ी कलम को जीत भरी नजरों से निहारने लगे।
वंदना पुणतांबेकर
इंदौर
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