स्त्री-दुर्गा कुमारी

स्त्री.....

एक किताब की तरह होती है

जिसे देखते हैं सब,

अपनी-अपनी जरूरतों के

हिसाब से


कोई सोचता है, उसे

एक घटिया और सस्ते

उपन्यास की तरह।

तो कोई घूरता है,

उत्सुक-सा

एक हसीन रंगीन,

चित्रकथा समझकर


कुछ पलटतें हैं, इसके रंगीन पन्ने,

अपना खाली वक्त,

गुजरने के लिए।

तो कुछ रख देते हैं,

घर की लाइब्रेरी में 

सजाकर,

किसी बड़े लेखक की कृति की तरह,

स्टेटस सिम्बल बनाकर


कुछ ऐसे भी हैं,

जो इसे रद्दी समझकर, 

पटक देते हैं।

घर के किसी कोने में


तो कुछ बहुत उदार होकर

पूजते हैं मंदिर में,

किसी आले मे रखकर

गीता,कुरआन, बाईबिल जैसे,

किसी पवित्र ग्रंथ की तर्ज


स्त्री एक किताब की

तरह होती है, जिसे 

पृष्ठ दर पृष्ठ कभी

कोई पड़ता नहीं

समझता नहीं,

आवरण से लेकर

अंतिम पृष्ठ तक 

सिर्फ देखता है,

टटोलता है


और वो रह जाती है

अनबांची

अनअभिव्यक्त

अभिशप्त सी

ब्याहता होकर भी

कुँअरि सी...


विस्तृत होकर भी

सिमटी सी...

छुए तन में 

एक

अनछुआ मन लिए।

सदा ही

स्त्री.....


 दुर्गा कुमारी

स्नातकोत्तर हिंदी विभाग

ति.मां.भा.विश्वविद्यालय भागलपुर



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