सुधा बसोर की कविताएं

 जिंदगी से जिंदगी की बात करना चाहती हूं।

बैठ मेरे सामने दीदार तेरा चाहती हूं।


चलते हुए ऐ जिन्दगी, इन रास्तों पर तेरे।

कांटे चुभे पग में असीमित हैं मेरे।

और कितने रास्ते कांटों भरे हैं ? अब जान लेना चाहती हूं।

जिंदगी से जिंदगी की बात करना चाहती हूं।


इस तरह क्यूं रूठ कर बैठी है मुझसे जिंदगी।

यत्न करके सब थकी अब किस तरह तुझको मनाऊं।

जानना बस राज इतना चाहती हूं।

जिंदगी से जिंदगी की बात करना चाहती हूं।


बुनते हुए मधु स्वप्न तेरे ।

फंस गई हूं उलझनों के जाल में।

काटकर इस जाल को, स्वप्न में अब रंग भरना चाहती हूं।

जिंदगी से जिंदगी की बात करना चाहती हूं।


जिंदगी के आसमां में हैं छिपे बादल खुशी के।

आज मैं खुद को ख़ुशी की चंद बूंदों से भिगोना चाहती हूं।

जिंदगी से जिंदगी की बात करना चाहती हूं।

बैठ मेरे सामने दीदार तेरा चाहती हूं।


शीर्षक--धरती कहे पुकार के

विधा--मनहरण घनाक्षरी


स्वार्थी बड़ा ये मानव, बन गया है दानव।

चीरे सीना धरती का, कोई समझाइऐ।


नदिया जो पूजनीय, महत्ता अतुलनीय।

ऐसी पुण्य गंगे मां को, नाला न बनाइए।


मानव है अत्याचारी, प्रकृति उजाड़ी सारी।

ओट में विकास की यूं, आरी न चलाइए।


देख देख रोती रही, फिर भी है मौन मही।

सुन के पुकार मौन, धरा को बचाइए।

                  सुधा बसोर

                   गाजियाबाद





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