राजेश्वरी जी को विद्यालय में कौशिक मेडम के नाम से जाना जाता था ,क्योंकि उनका नाम विवाह से पूर्व राजेश्वरी कौशिक था जो विवाह उपरांत त्यागी हो गया था ,बहुत ही कम बोलने वाली अपने काम से काम और नाहक की गपशप में मशगूल हमने उन्हें कभी नहीं देखा ,हाथ में हाजरी रजिस्टर या बच्चों की कापियां या पुस्तक दबाए वे क्लास में आतीं और पाठ पढ़ाना प्रारम्भ कर देतीं ,गौरवर्ण,छरहरी काया आंखों पर नज़र का चश्मा ,भव्य और दिव्य सरस्वती की मूर्ति सी त्यागी मेडम ,ना कभी किसी भी नाराज होतीं न फटकार लगातीं एक दम स्थिर सहज और शांत ,शायद यह स्थिति सन 1975 में उनके पति दुष्यंत जी के आसामयिक निधन के कारण बनी हो वे उस विषाद की काली छाया से अंदर ही अंदर लड़ रही हों ,क्योंकि वर्ष 1977 में उनसे हमारी मुलाकात हुई थी और दो वर्ष ही तो हुए थे दुष्यंत जी को उन्हें अलविदा कहते हुए |
वर्ष 1979 की बात है मॉडल स्कूल की शालेय पत्रिका का प्रकाशन हुआ और जिसके सम्पादन का दायित्व त्यागी मेडम को बनाया गया ,और हमने भी अपनी एक टूटी-फूटी कविता मेडम के पास प्रकाशन हेतु जमा कर दी ,आपको आश्चर्य होगा इस कविता को पूरी तरह सुधार कर मेडम ने पत्रिका में प्रकाशित किया मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था और यह हमारी पहली लिखी और प्रकाशित कविता थी 'हमारा वतन ' जिसका शीर्षक था | इस कविता के बाद कक्षा के अन्य विद्यार्थियों की अपेक्षा हमारी त्यागी मेडम से निकटता बढ़ गयी हम स्कूल बाउंड्री के सामने उनके सरकारी निवास एफ- 69 /8 दक्षिण तात्या टोपे नगर भोपाल, जो कि एक सरकारी आवास था पर कभी-कभार आने जाने लगे ,यहां दरवाजे पर दुष्यंत कुमार त्यागी ,सहायक संचालक भाषा विभाग की नेम प्लेट लगी थी , अब यह शासकीय आवास विकास के नाम पर यानी कथित ' स्मार्ट-सिटी ' की भेंट चढ़ गया जैसे ख्यात व्यंग्यकार शरद जोशी जी का घर और उनके नाम की सड़क काश ! यह घर न होकर धार्मिक स्थल होते तो मजाल यूँ मलबे के ढेर में तब्दील हो पाते,उस समय हमें न तो साहित्य की कोई समझ थी और न अधिक जानकारी और साथ ही दुष्यंत जी के महत्वपूर्ण साहित्यिक अवदान और उनके ऊंचे कद की ,हाँ बस इतना मालूम था कि मेम के पति बहुत बड़े साहित्यकार थे |
उस सरकारी आवास में दस बारह फिट की खुली जगह के बाद छोटा से बैठक का कमरा था जिसमें एक बहुत ही साधरण सा पलंग और चार कुर्सियां डली रहती थीं ,कमरे में दुष्यंत जी का चर्चित श्वेत-श्याम चित्र जो आज भी बहुत जगह प्रयुक्त होता है टँगा हुआ था साथ ही मेम के साथ उनकी युवावस्था का एक चित्र भी दीवार पर लगा हुआ था ,आज भी उस कमरे का दृश्य एक चलचित्र की भांति दृश्यमान हो उठता है |
फिर जब स्कूल छूटा तो त्यागी मेडम भी कहीं छूट गयीं ,और लगभग दो दशक पश्चात 1985 में कुछ साहित्यिक सक्रियता बढ़ी और कीर्तिशेष मित्र डॉ बाबूराव गुजरे ने करवट कला परिषद से जोड़ा तथा राजुरकर जी ने दुष्यंत संग्रहालय की स्थापना की तो एक बार पुनः उसी शासकीय आवास में त्यागी मेडम से भेंट होने लगी | अब तो हमारी समझ थोड़ी विकसित हो गयी थी सो हम दुष्यंत जी के बारे में भी मेडम से कुछ अनौपचारिक चर्चा कर लेते थे | दुष्यंत जी कब लिखते थे कैसे लिखते थे ,आचनक उन्हें क्या हुआ था आदि-आदि | कभी कुछ रफ कागजों ,पुरानी डायरियों में दुष्यंत जी का लिखा हुआ मेडम हमें दिखाती तो बड़ा कौतूहल होता ,और अपने भाग्य पर गर्व की हम इतने महान कालजयी रचनाकार के घर में बैठे हैं ,उनकी धर्मपत्नी अपनी शिक्षिका से बात कर रहे हैं और उनकी लिखी हुई रचनाओं को देख रहे हैं ,स्पर्श कर रहे हैं |
यूँ ही एक बार त्यागी मेम के घर उन्हें किसी साहित्यिक आयोजन का निमंत्रण देने मैं अपने मित्र डॉ बाबूराव गुजरे के साथ गया था ,मेडम तो अमूमन कहीं आया-जाया नहीं करती थीं ,परन्तु फिर भी हम उन्हें अपने कार्यक्रमों की सूचना दे दिया करते थे ,क्योंकि उन्हें हमारी साहित्यिक सक्रियता बहुत अच्छी लगती थी और वे मॉडल स्कूल के विद्यार्थी होने के नाते हमसे अतिरिक्त स्नेह भी करती थीं ,और हमें भी उनका सानिध्य अच्छा लगता था | मेम के साथ हम बात कर रहे थे कि हमारे सम्मुख चाय पानी लेकर कोई उपस्थित हुआ उन्होंने हम से नमस्ते की और चाय सामने रख दी | तब मेडम ने कहा- 'यह हमारी बहू मानू है बेटेआलोक की पत्नी ,यह कमलेश्वर जी की बिटिया है | हमने कहा जी मेडम हमें मालूम है क्योंकि उन दिनों दुष्यंत जी और कमलेश्वर जी की मित्रता के बारे में हमने सुन रखा था ,और बाद में दो मित्र समधी बन गए यह जानकारी भी हमें थी ,मानू भाभी भी बड़ी सहज विनम्र और उदार ,फिर जब भी हमारा मेम के घर जाना होता मानू भाभी से भी मुलाकात होती और आलोक जी से भी | हाँ वैसे भोपाल के किसी साहित्यिक आयोजनों में मेडम भले न जाती हों परन्तु वे दुष्यंत संग्रहालय के महत्वपूर्ण आयोजनों में कभी कभार समय निकाल कर अवश्य आतीं और साथ में आलोक भाई और मानू भाभी भी |
शायद वर्ष 1984-85 की बात होगी तब आकाशवाणी के युववाणी कार्यक्रम में पहली बार रचनापाठ का अवसर मिला होगा ,तब यहां युववाणी की कार्यक्रम अधिकारी मेडम की पुत्री अर्चना राजकुमार जी हुआ करती थीं ,एकदम ऊंची पूरी उन्नत ललाट गौरवर्ण और बहुत ही हँसमुख और व्यवहार कुशल,जिनका दुःखद निधन इंदौर रोड पर घटित एक भीषण कार दुर्घटना में हो गया था ,और एक बबूल के पेड़ से टकराई हुई गाड़ी उसमें टूटी हुई चूड़ियां और बिखरा हुआ सामान मैनें संयोग से स्वयम देखा था,क्योंकि मैं उन दिनों बैरागढ़ के पास एक गांव बरखेड़ा सालम के प्राथमिक स्कूल में शिक्षक था ,और सुबह अपनी साइकिल से स्कूल जा रहा था ,और इस दुर्घटना स्थल के करीब से गुजरा तो आने जाने वाले राहगीर यहां रुक रुक कर काले रंग की अम्बेसडर क्षतिग्रस्त गाड़ी को देखते और आगे बढ़ जाते, मैँ भी यहां रुका और देखा बाद में पता चला यह तो अपनी त्यागी मेडम की बिटिया और दामाद थे जिनका इस भीषण दुर्घटना में आकस्मिक निधन हो गया था ,इस भयानक वज्रपात से भी मेडम काफी टूट गयी थी |
आज सड़क से लेकर संसद तक आम से लेकर खास तक सब लोगों द्वारा दुष्यंत की गज़लों को गाया जाता है , कहाँ तो तय था चारांगा हर घर के लिए,हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, मत कहो आकाश में कुहरा घना है,यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है, कौन कहता है आकाश में सुराख हो नहीं सकता, एक चिंगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तो ,इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है..जैसी गज़लें और उनके शेर किसको याद नहीं होंगे , वे आज के सबसे लोकप्रिय शायरों में से एक हैं और मीर ,कबीर ,ग़ालिब तुलसी जैसे ही आमजनों के कंठ पर विराजे हैं ,जो रचनाकार किताबों से मुक्त होकर वाचिक और श्रवण परम्परा से सहज रूप में बिना प्रयास के हमारे ह्रदय में विराजते हैं अगली पीढ़ी तक पहुंचते हैं वे ही तो कालजयी रचनाकार होते हैं |
दुष्यन्त आम आदमी की आवाज हैं "साये में धूप " की उनकी हर ग़ज़ल आम आदमी की जुबान है हर आदमी की अपनी ग़ज़ल है ,दुष्यंत जी ने ग़ज़ल के अलावा भी बहुत कुछ लिखा है विविध विधाओं में उनकी 'एक कंठ विषपायी '(काव्य-नाटक) और मसीहा मर गया (नाटक) सूर्य का स्वागत,आवाजों के घेरे,जलते हुए वन्त का बसन्त (काव्य )छोटे-छोटे सवाल ,आंगन में एक वृक्ष, दोहरी ज़िन्दगी, (उपन्यास) मन के कोण (लघुकथा )सहित अनेक पुस्तकें हमारे सम्मुख हैं परन्तु दुष्यंत जी की चर्चा सिर्फ और सिर्फ एक कालजयी ग़ज़लकार और 'साये के धूप ' रचनाकार के रूप में होती है |
दुष्यंत जी का एक हस्तलिखित पत्र( छाया प्रति) मेरे पास है जो उन्होंने तत्कालीन राजनेता मंत्री कवि कीर्तिशेष श्री विट्ठलभाई पटेल को लिखा था अपनी नोकरी से परेशान हो कर अपनी नई पदस्थापना और स्थानांतरण के संदर्भ में बड़ा भावुक और मार्मिक पत्र जिसमें उन्होंने तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री श्री विद्याचरण शुक्ल से अपना काम करवाने का अनुरोध किया था पत्र पढ़ने लायक है ,और यह बताता है जो आदमी आपातकाल के विरोध में कलम चलाता है दूषित राजनीति को इतनी कड़वी फटकार लगाता है ,वही कभी-कभी अपने आपको व्यक्तिगत रूप से कितना कमजोर कितना असहाय अपने लेखन से एकदम परे व्यवहार करने और समझने लगता है | दुष्यंत को दुष्यंत बनाने वाली उनकी नेपथ्य की शक्ति आदरणीया राजेश्वरी जी को शत शत नमन ,विनम्र श्रद्धासुमन ...!!!
घनश्याम मैथिल 'अमृत' भोपाल
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