बच्चों में घटते संस्कार-दोषी कौन?

 भारत हमेशा से सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों का देश कहलाया है। वैदिक, आदि-वैदिक काल से यहाँ विद्यार्थियों को सांसारिक ज्ञान के साथ जीवन के ज्ञान की शिक्षा भी दी जाती है। अनेक शताब्दियों तक भारत में गुरुकुल की परंपरा रही जहाँ छात्रों को गणित, विज्ञान के साथ धर्म-ग्रंथों की शिक्षा भी दी जाती थी। बच्चों का व्यक्तित्व पारिवारिक वातावरण के साथ, उन्हें मिल रही शिक्षा भी पर आधारित होता है, साथ ही साथ उनकी संगति और उनके द्वारा किये गये कार्यों से भी प्रभावित रहता है। सरल शब्दों में कहा जाए तो बच्चों का स्वभाव बहुत कोमल, सुगम, निश्छल और आसानी से प्रभावित होने वाला होता है। एक पौधे के समान उन्हें भी उपयुक्त मात्रा में खाद, पानी और आतप की आवश्यकता होती है, उन्हें वैसे ही पोषित किया जाता है जैसे पैधे को एक वृक्ष में परिवर्तित होने तक। बच्चों का मन उस गीली मिट्टी के समान होता है जिसके गीले होने के कारण हम उसे आकर दे सकते हैं। इस प्रकार बच्चों के व्यक्तित्व का विकास समय और वातावरण के साथ होता है। आज के समय में पर संस्कार और गुण आने वाली पीढ़ी की धरोहर न बनकर केवल व्यक्तिगत संपदा रह गये हैं, जिन्हें व्यक्ति स्वयं ही संभालता है। आज की पीढ़ी ने निश्चित ही आधुनिकता को अपना कर, आर्थिक स्थिति को अच्छा बनाया है परंतु समय के साथ वह अपना नैतिक और सामाजिक पतन कर रही है। व्यक्ति की जड़ें, उसका मूल उसका बाल्यकाल होता है और अगर उस समय से ही उन्हें सही संस्कार न मिले तो उसका व्यक्तित्व और युवाकाल अवश्य प्रभावित होता है, इस कारण बच्चों को सही संस्कार देने अति आवश्यक है।

यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज बच्चों में संस्कार दिन-प्रतिदिन घटते जा रहे हैं, और वह नैतिक और सामाजिक पतन की ओर स्फूर्ति से अग्रसर हो रहे हैं। समय के साथ जीवन शैली ऊँची होती जा रही है, पर व्यक्तित्व में दुर्गुणों की संख्या भी बढ़ रही है। आज की पीढ़ी आधुनिकता के नाम पर असंख्य विकृतियों की ओर आकर्षित है, जो उन्हें उनके उद्देश्य से विमुख कर रही हैं। बच्चों में संस्कारों का घटना लंबे अंतराल से हो रही गलतियों का परिणाम है, जो आज हमारे सामने एक गहरी खाई के रूप में खड़ा है। इसका एक ही कारण है यह कहना अनुचित होगा, क्योंकि यह परिवर्तन पीढ़ियों के साथ आया है। कहा जाता है, 'परिवर्तन संसार का नियम है' किन्तु वह परिवर्तन ऐसा होना चाहिये जो साकरात्मकता से पूर्ण हो। मेरे दृष्टिकोण में इसका सबसे विस्तृत कारण है पश्चिमी सभ्यता का बढ़ता प्रभाव और दिखावटी जीवन-शैली। आज के समय में बच्चे पश्चिमी संस्कृति को उच्चस्तरीय मानते हैं, और दुर्भाग्यवश इसी कारण वह अपनी संस्कृति, अपने संस्कारों से दूर होते जा रहें है। वहाँ के खान-पान, संगीत, साहित्य और जीवन शैली से वह इतने प्रभावित हो चुके है कि वह अपनी जड़ों से अलग हो जाना चाहते हैं। पुरातन काल से भारत को विश्वगुरु कहा जाता है, विश्वभर में सबसे ज्येष्ठ और उत्कृष्ट संस्कृति का धनी रहा है...फिर भी हमारे युवा अपनी संस्कृति का महत्त्व नहीं समझ पा रहे हैं। दोष केवल किसी एक को देना उचित नहीं होगा।

बनावटी जीवन शैली और बाह्यमुखी व्यवहार जो व्यक्ति को क्षणिक सुख देते हैं, आज की पीढ़ी उनकी ओर मुख्यतः आकर्षित है। वह समाज के आँकड़ों पर खड़े उतरने की आड़ में स्वयं को भूल जाते हैं। टेक्नोलॉजी और सोशल मीडिया में वह इतने अंतर्ध्यान हो गये है, कि वह साहित्य और किताबों से दूर होते जा रहें है जो एक चुनौती बनकर सामने आया है। पहले के समय में जब बुजुर्गों से बच्चे रामायण, महाभारत और नैतिक कहानियाँ सुना करते थे, पुस्तकों में विशेष रुचि रखा करते थे तब वह अपनी सोच अपने विचारों का निर्माण स्वयं किया करते थे। आज वह विवेक का प्रयोग न कर के दूसरों से एक क्षण में प्रभावित हो जाते हैं, जिस कारण वह स्वयं को भुला देते है और अपनी पहचान खोते-खोते अपने संस्कारों को भी उसी भीड़ की धुंध में खो देते हैं। दिनकर जी पंक्तियाँ याद आती हैं-
"जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है"

आज की पीढ़ी अपने विवेक को क्षीण करते हुए, अपने पतन का मार्ग स्वयं चुनती है। पर समस्या केवल यहाँ समाप्त नहीं होती, आज माता-पिता के पास संतानों के समय की कमी रहती है जिस कारण वह अपने मित्रों पर निर्भर रहने लगते है और अपनी संगति के साँचे के अनुसार ढलने लगते हैं। सही मार्गदर्शन न मिलना भी एक बड़ा कारण है। माता-पिता संतानों से उम्मीदें रखने के साथ कई बार उनपर उन्हें थोपते हैं, जिस कारण बच्चे गलत आदतों में पड़ जातें हैं। एक खोज के अनुसार भारत में लोग बहुत तनाव में रहते है, उनके पास वह आंतरिक खुशी वह सन्तोष नहीं होता जिसकी इच्छा वह रखते है, यह भी एक कारण है मार्ग भटकने का। वह क्षणिक सुख चाहते है, जिस कारण वह सोशल मीडिया पर चल रहे अभद्र चीज़ों की ओर आकर्षित रहते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है मीडिया, कहा जाता है मनुष्य देख कर बेहतर सीख सकता है। मीडिया और साहित्य समाज का दर्पण कहलाते है। हम वहाँ जो देखते है, उसे ही सत्य मानने लगते है। वह बच्चों के मस्तिष्क पर विशेष रूप से प्रभाव डालते हैं। बॉलीवुड में बनने वाली फिल्में केवल मनोरंजन तक सीमित रह गयी है, प्रसिद्धि पाने के लिये लोग कुछ भी करने को तैयार है...इसका प्रभाव बच्चों पर पड़ता हुआ स्पष्ट दिखता है। कार्टून और अनिमशन्स में कुछ ऐसा नहीं दिखाया जाता तो नैतिकता को बढ़ावा दे। 
आज के समय में बनने वाले गानों के बोल अनैतिक और असभ्य होते हैं...हमारे मध्य ऐसी विकृतियों के होते हुए जब युवा पीढ़ी इतनी प्रभावित होती है, तो बच्चों का मन तो पुष्प के समान कोमल होता है। उसके पश्चात अगर देखा जाए तो मोबाइल गेम्स, बीजीएमआई, फ्री फायर, सीओडी जिनमें हिंसा को स्पष्ट दिखाया जाता है। हमारी शिक्षा प्रणाली में भी ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जो इस विषय पर ध्यान दे। यही छोटे-छोटे विषय जब मिल जाते है, तो नयी पीढ़ी में कुसंस्कार जन्म लेते हैं।

निष्कर्ष निकाला जाए तो दोष किसी एक का नहीं है। इसमें मीडिया, बॉलीवुड, आधुनिक संगीत, संगति, बाह्यमुखता, पश्चिमी सभ्यता का बढ़ता प्रभाव, शिक्षा-प्रणाली इत्यादि सभी दोषी है। भूल हमारी भी है, जो हम अपनी संस्कृति और संस्कारों का महत्त्व नहीं समझा पाए। कहा जाता है कि 'देर आये दुरुस्त आये'। बच्चे देश का भविष्य है, यही आने वाले समय में देश के प्रतिनिधि होंगे, इस कारण बच्चों में  संस्कृति का ज्ञान  और संस्कार होना बहुत आवश्यक है। बूंद बूंद से सागर भरता है, अगर शुरुवात आज की जाए तो कल उसका फल अवश्य मिलता है। भारत के नागरिक और साथ ही एक मनुष्य होने के नाते हमारा यह कर्त्तव्य बनता है कि हम अगली पीढ़ी को अच्छे संस्कारों से सींचे, जिस से वह भविष्य में राष्ट्रोन्नति के लिये अग्रसर हो।

मानसी शर्मा
आयु-16वर्ष
नयी दिल्ली




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