जब हम अपना धर्म ही भूल गये तब बाक़ी बातों का महत्व क्या है? सभी धर्मों के अपने नियम होते हैं अत: ज़ाहिर है कि आज का शिक्षक इन नियमों पर चलना भूल चुका है तो भला वह शिक्षक का धर्म क्या जाने? शिक्षक-धर्म परम्परा से या फिर अधिक परिश्रम एवं पुरुषार्थ से आता है! जहाँ तक परम्परा का प्रश्न है, हमारे शिक्षक गण भी कुछ उदासीन रहने लगे हैं और कुछ हमारे नये शिक्षक भी रुचि लेने में क़तराने का भाव रखने लगे हैं! चूंकि कोई पढ़ाये या आधे मन से अथवा लापरवाही से पढ़ाने पर फ़ीस (अर्थात् मासिक आय) पूरी मिलती है, अत: सामान्यतः शिक्षक गण पर भी इसका यह असर हुआ है कि वे पूरे मनोयोग से अपने अधीन छात्रों को नहीं पढ़ाते हैं फलस्वरूप परिणाम आशा के अनुरूप अब नहीं आते!
जो हमारी शिक्षा-नीति के क्रियान्यवन में निरन्तर अवमूल्यन हो रहा है इसका मुख्य कारण हमारे शिक्षक धर्म का विलुप्त होना है! अभी समय है, इसे हम अपनी इच्छा शक्ति के बलबूते पर सुधार कर सकते हैं! ऐसा नहीं है कि सभी शिक्षक-गण ऐसा करते हों! लेकिन इसमें दो राय नहीं कि शिक्षक-गणोंं की अत्याधिक लापरवाही से इस प्रथा के विलुप्त होने के कारण यह स्थिति उत्पन्न हुयी है!
क्या निम्न प्रश्न पूछने का अधिकार हमें शिक्षक-गणोंं से नहीं है कि -
* किताबों से क्यों दूर हो रहे हैं युवा?
* बच्चों में घटते संस्कार के लिए अंतत: दोषी कौन?
* क्या शिक्षा में आरक्षण से घट रहा है शिक्षा का स्तर ?
तथा
* विद्यालयों में होती राजनीति का बच्चों पर प्रभाव!
शिक्षक-धर्म का उक्त चार बातों पर गहरा असर पड़ता है! ं
तो आइये, हम आज ही और अभी से इन बातों पर अमल करें और विलुप्त होते शिक्षक-धर्म को अपनी क्षमता भर बचाने का जतन करें!
निवेदक
देवकीनंदन 'शान्त',
साहित्य भूषण
'शान्तम्', १०/३०/२,
इन्दिरा नगर, लखनऊ-२२६०१६(उ प्र)
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