मैं भी इंसान हूँ,
फरिश्ता नहीं,
मुझे भी दर्द होता है।
बस हँस कर छिपा लेती हूँ।
किसको पड़ी है
कोई देखे,पूछे,दवा लगाये।
खुद ही अपने जख्मों को सी
देती हूँ।
एक पैबंद पर नया पैबंद लगाते हुए
बीत गए दिन महीने और साल
कुछ भी तो नहीं बदला
न दर्द देने वाले बदले
और न सहने वाली
बदली हैं तो सिर्फ तारीखें
हर दशक के बाद
एक नया दर्द का सिलसिला
ना साथी है ना मंजिल का पता
इन सकरीली,पथरीली
टेढ़ी मेढ़ी राहों पर
चलते जाना है,
बस चलते जाना।
लता यादव (गुड़गांव)
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