बहुत खोजने पर भी जब, हम दोनों को ही कोई मुद्दा नहीं मिला तो घूमने निकल गए। शहर हमारे लिए नया था। थोड़ा ही आगे पहुँचे कि एक दुकान पर लगा बोर्ड देख कर मैंने ‘इन्हें’ रोका- देखो तो क्या लिखा है?
दोनों के मुख से एकसाथ निकला – सम्मानालय।
बड़े – बड़े अक्षरों में लिखा था; गलत पढ़ लेने की कोई गुंजाइश नहीं थी। हद हो गई। ऐसा भी कोई लिखता है। दोनों को करंट सा लगा। वैसे अगर पति- पत्नी आपस में बहस न करें तो दुनिया में कई मुद्दे हैं बहस के लिए।
सामने खड़े ठेले वाले से इन्होंने पूछा – ये कैसी दुकान है भाई ? उसने इन्हें सिर से पैर तक घूरा फिर टेढ़ी हँसी हँस कर बोला – पढ़ लीजिए न, पढ़े लिखे तो लग रहे हैं। इतनी इज़्ज़त एक मुश्त पा कर ‘ये’ बेचारे लजा गए। मैं इन्हें पीछे करके खुद मोर्चे पर आ गई।
मैंने कहा – भैया, भोजनालय, औषधालय, मदिरालय, शौचालय वगैरह तो सुना था मगर सम्मानालय , हद हो गई। ऐसा तो पहले कभी नहीं देखा।
वह बोला- देखते कैसे, इस शहर में आज ही तो दिखे हैं।
मैं- क्यों यह शहर बाकियों से अलग है क्या?
- जी बिल्कुल है। यह सम्मानित लोगों का शहर है।
- तो क्या बाकी असम्मानित लोगों के हैं?
मैने कहा तो वह हमारी उपेक्षा पर उतर आया। मसले आलू की गोल – गोल टिकियाँ बनाने लगा। फिर स्टोव तेज करके उसने मेरे तीखे प्रश्न को धुएँ में उड़ा दिया।
हम अपने आश्चर्य में डूबते- उतराते आगे बढ़े जा रहे थे। कुछ कदम खुद को चला कर हम सम्मानालय के सामने पहुँच गए। ‘ये’ ठिठक गए। मैं इन्हें ठेलते हुए अंदर ले गई। काउंटर पर एक सुंदरी विराजमान थी। उसने हमसे नमस्ते की। हमने पूछा – यहाँ क्या मिलता है।
सम्मान- कह कर उसने हम दोनों पर पलकों की उठा – पटक की। मुझे तो ऐसे देखा जैसे कोई ग्रामीण महरिया कण्डे पाथना छोड़ कर गोबर लगे हाथ लिए एरपोर्ट पहुँच गई हो।
मगर ऐसा कैसे हो सकता है? आप सम्मान कैसे बेच सकते हैं? – मैंने उसके देखने की परवाह नहीं की।
- जब लोग खरीदने को तैयार हैं तो हम बेच क्यों नहीं सकते?
- तो क्या लोग खरीदने भी आते हैं।
- जी हाँ। आते हैं।
वैसे फेरी लगा कर भी बेचा जा सकता है। इससे सम्मान की पहुँच बढ़ेगी। गली- गली , मोहल्ले- मोहल्ले पहुँच जाएगा सम्मान। आखिर सम्मान को भी पता लगना चाहिए कि वह अभिजात्य नहीं, सर्वहारा भी है। ग्राहक बढ़ेंगे। बिजनेस अच्छा चलेगा... खैर उसने पूछा नहीं तो क्यों बताऊँ!
मेरे भीतर चल रहे उच्च कोटि विमर्श से अनजान उस सुंदरी ने हम अज्ञानियों को ज्ञान देने का मन बना लिया। वह काउंटर से निकल कर आई और हमें ले जा कर बगल में रखे सोफे पर बैठ गई।
मैंने बैठते- बैठते कहा- -माना सम्मान बिकता है, लोग खरीदते हैं। लेकिन यह कैसे तय होता है कि कौन सा सम्मान ठीक रहेगा यानी क्रेता का संकट?
वह आँखों पर से बाल हटाते हुए बोली – कोई संकट- वंकट नहीं। क्रेता अपना बजट बताता है। उसी रेंज का सम्मान हम उसे दे देते हैं।
इतना कहते – कहते सामने से एक लड़का प्रकट हुआ जो सुंदरी के हाथ में कुछ थमा कर गया। सुंदरी ने उसे खोलते हुए हमें दिखाया और स्पष्ट किया , “ यह कैटलॉग है। आराम से देखिए। “
वह हमें सी डब्ल्यू ( कक्षा कार्य) दे कर वापिस जा कर काउंटर पर खड़ी हो गई। कैटलॉग में सम्मानों की सूची एवम उनके रेट लिखे थे। इसके साथ ही किनके हाथों सम्मान लेना है इसकी भी सूची, नाम और फोटो के साथ वर्णित थी।
अब हम दोनों कुछ पल खामोश रह कर इस सनसनीखेज़ दस्तावेज़ का अध्ययन कर रहे थे। उसे लगा’ ये मंदबुद्धि दम्पति शायद समझ नहीं पा रहे, नैतिक मूल्य कितने उच्च स्तर पर पहुँच गए हैं। इतने उच्च हैं कि बिना सीढ़ी पर चढ़े इन्हें छुआ भी नहीं जा सकता, पाना तो दूर।व्यवसायियों ने यह सीढ़ी परोपकार की भावना से उपलब्ध कराई है। इस धंधे से वे बिल्कुल भी मुनाफा नहीं कमा रहे हैं। वे तो केवल लागत मूल्य ही ले रहे हैं। ‘इनने’ अपनी इनकम बढ़ाने की सम्भावनाएँ तलाशते हुए पूछा- यह आईडिया आपको कैसे आया?
सुंदरी श्रद्धा पूर्वक आँखें बंद करके बोली – यह आईडिया कंटे शागिर्द की देन है। वे दलाली किया करते थे।
- किसकी?
- रेत, गिट्टी, सिलेंडर... जिसकी मिल जाए उसकी। वह टैक्सी स्टैंड देख रहे हैं, उसने अंगुली दिखाई। हमारी दृष्टि अब उसकी बंधुआ थी, वहीं गई , जहाँ ले जाई गई।
वहाँ उस बिजली के खंभे के पास दिन- दिन भर खड़े रहते थे शागिर्द। बसों, टैक्सियों से हफ्ता वसूलते थे। जब पुलिस मजबूरन दलालों पर सक्रिय हो जाती तब वे यही करके खर्चा निकालते थे। बीच के समय में पान की गुमटी पर अखबार देख लिया करते। एक दिन स्वास्थ्य विभाग ने अवसाद और खुदकुशी करने वालों के आंकड़े छापे। उसमें लेखकों और कवियों की अच्छी संख्या थी। बस शागिर्द को सम्मानालय के आईडिया का दर्शन प्रकाश पुंज के साथ हुआ।
वे बेचैन रहने लगे।
कई लेखक बिना सम्मान या पुरस्कर के उदास हो जाते हैं। एक आए थे। बोले कलम की स्याही में डूब मरने को जी करता है। एक और आए, कहने लगे – की- बोर्ड पर अंगुलियाँ पटकते- पटकते सिर पटकने का मन हो गया है। कन्टे शागिर्द को चैन तब आया जब उसने अपनी नवाचारी सोच से इस पुनीत व्यवसाय की आधारशिला रख दी।
सुंदरी, इतना कह कर, हम में ग्राहक की उम्मीद लिए पुनः हमारे निकट आई और प्रश्न किया- आपको किसका सम्मान करवाना है?
हमने कहा, “देखिए हमें सम्मान नहीं कराना है, हम तो बस जानना चाहते हैं कि इस तरह का बिजनेस भी चलन में आ गया है। हम हैरान हैं। विश्वास नहीं होता कि बीच- बाज़ार दुकान लगा कर सम्मान बेचे जा रहे हैं। खरीदे जा रहे हैं। हमारे लिए तो यह मुनिस्पेल्टी के नल से पानी की जगह चाय निकलने जैसा हैरतंगेज है।“
उसने अपने प्रशिक्षण कौशल का प्रयोग करते हुए हमें समझाया, “ इसमें हैरानी की क्या बात है? बाज़ार तो माँग और आपूर्ति के सिद्धांत पर कार्य करता है। आजकल सम्मान की माँग बहुत बढ़ गई है। हमने देखा लोग परेशान होते रहते हैं। आदमी लोन ले कर घर बनवाता है। बाहर के कमरे में शो केस बनवाता है। इसमें वह अपनी उपलब्धियां सजाना चाहता है। “
अब तक मैं उससे सहमत हो चली थी, कहा, “ तो दुकान से ट्राफी, मोमेंटो वगैरह खरीद कर रख ले। “
उसने मेरे साथ सहमति रखते हुए मेरे ज्ञानका विस्तार किया, “ लोग उस अवसर की फोटो भी चाहते हैं...नहीं तो फेसबुक- इंस्टा पर दुनिया को क्या मुँह दिखाएंगे। “
हम दोनों ने एक – दूसरे को देखा फिर वापिस उसीका मुँह देखने लगे। निपट गरीब को दौलत मिल रही थी! ‘मनहु रंक निधि लूटन लागे’।
वह बोली, “ इसीलिए हमारे फलाने ग्रुप ऑफ इंडस्ट्रीज़ के मालिक ने यह प्रतिष्ठानों की श्रृंख्ला लॉन्च की है। इसकी फ्रेंचाइज़ी दो सौ छोटे- बड़े शहरों में हैं।“
‘गाँवों में तो हर आदमी के पास फ्रेंचाइज़ी है’- ‘ये’ बुदबुदाए। मैने चुप रहने के संकेत स्वरूप इनका हाथ दबाया।
सुंदरी को महसूस हुआ हममें संभावनाएं हैं। शायद वह ताड़ गई थी कि मेरे भीतर का छोटा – मोटा लेखक, सम्मान की अभिलाषा रखता है। मैंने भी अपने भीतर सकरात्मक परिवर्तन महसूस किया। अब केवल और केवल सौदा पटने की देर है।
अनीता श्रीवास्तव टीकमगढ़
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