बसंती गीत
मंद मंद पुरवइया बहे
बागों में पुहुप खिले
प्यारी प्यारी सी
अब देखो धूप लगे
तृण पर कोई रसना सी
मिहिका की बूंदे बिछे
सौम्य-सलोनी सी
मौसम की बहार सजे
हरियाली चाहू ओर दिखे
खेतों में सरसों पीले
प्यार का मौसम है
प्रणयी भी खूब मिले
नभचर में उमंग भरे
उड़-उड़ कर गगन तले
धरती अम्बर का
यौवन भी खूब खिले
बसंत अभिनंदन
फिज़ा के गुल को भी उनपर गुमान सा हो गया
शाख का पत्ता पत्ता भी उनका गुलाम सा गया
निखारा कुछ यूँ बसंती हवाओं ने
मानो रोम रोम उनका गुलफाम सा हो गया
अंतर्मन ये मेरा अल्पविराम सा हो गया
विस्मय सा एहसास भावों पर नीलाम सा हो गया
खेतों में लहराती फसलें ,उर में अनुरक्ति हिलोरें करतीं
लगाता है ऋतु बसंत का सलाम सा हो गया
मैं वृंदावनि
तेरे दहलीज की
मैं वृंदावनि
बड़ी सजग
बड़ी मन भावनी
सकल पूजित
मैं विश्व पावनी
करती संपन्न
मैं भाग्य धारिणी
हूँ सूक्ष्म सी
मैं पतित पावनी
करती रक्षित
मैं भय हारीणी
अज्ञारी तेरे आलय की,
हूँ सुख दायनी
दूर करूँ कष्ट तेरे सारे,
मैं रोग नाशीनी
कोमल सी ,
मैं तेरी गृह नंदिनी
सुख दुःख की
तेरी मैं संगिनी
विष्णु संग पूजित
मैं हरि वंदिनी
श्यामा सी मैं
हूँ कृष्ण रंगीनी
हूँ तेरी मैं बस
चौखट वासिनी
देती सबको मैं बस
स्नेह रागिनी
देना स्थान डेहरी पर
हूँ तेरी मैं जीवन तरंगगिनी
कोने में मैं स्थापित हूँ
तेरी द्वार रक्षीनी
स्वरचित
0 टिप्पणियाँ