वसंत ऋतु में धरती के श्रृंगार और सभी के हर्षोल्लास को देखकर एक विरहिणी के मन के भावों को इस रचना में प्रस्तुत करने का एक छोटा सा प्रयास। मंच को सादर प्रेषित है---
धीरे-धीरे सरका धुंध की चादर धरती भी अब झांक रही है।
पिया मिलन की आस संजोए अंबर का मुंह ताक रही है।।
कर सोलह श्रृंगार धरा खुद पर ही इतराई है।
झेली विरह की पीड़ा जो अब तक देख वसंत सब बिसराई है।।
भांति भांति के गजरे लेकर केशों का श्रृंगार किया।
पुष्प कमल की लाली से फिर अंधरों को रंग लाल दिया।।
रंग बिरंगे बूटों वाली ओढ़ी चूनर धानी है।
लता वल्लरी कटि कर्धनी, कंगन गेंदा पहने लगे धरा महारानी है।।
देख धरा के इस यौवन को कामदेव भी ललचाते हैं।
निर्निमेष है अंबर भी कब से मिलने धरती से अकुलाते है।।
होगा ये मधुमास सखी री मोहे तो पतझड़ ही भाए।
आकर वसंत निगोड़ा बस मेरी तो विरह की पीर बढ़ाए।।
सृष्टि के कण-कण में देखो झूमे नाचें सब ही गाएं।
पिय बिन कैसे कहूं सखी री आओ हम वासंती हो गाएं।।
सुधा बसोर, गाजियाबाद से
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