पापा अक्सर दीदी को लेकर कहा करते थे कि घर-परिवार में बेटी की दोहरी भूमिका होती है। घर का काम भी निपटा लेती है और बाहर का भी। बेटी मायके में भी अपनी भूमिका निभाती है; और ससुराल का भी जिम्मा उठा लेती है। पापा की बातें सुनकर मुझ इकलौते भाई में बड़ी बहन के प्रति हल्की-सी जलन होती थी। कभी-कभी मेरी दबी जुबान निकल पड़ती थी- "क्या खाक दोहरी भूमिका निभाती है; दीदी कहीं की।"
आज पापा की अर्थी के आगे वाले भाग के दाएँ हिस्से का भार मेरे कंधे पर था। तीन हिस्से का भार मेरे चचेरे भाइयों ने ले रखा था। मैं घर में सबसे छोटा था। पापा की असामयिक मृत्यु ने मुझे अंदर तक हिला दिया था। हृदय भरा हुआ था मेरा। सर झुका हुआ था। आँखों से आँसू के लुढ़क रहे थे। मेरा दुखता हुआ कंधा अर्थी के भार से दबा जा रहा था। मेरी दिली इच्छा थी कि कोई मुझे आकर सम्भाल ले। तभी एक कंधा मेरे आगे लग गया। कदाचित् उसने मेरे दुखते व दबते हुए कंधे को पहचान लिया था। मैंने तनिक आँखें उठाई; देखा वह कंधा दीदी का था। उसकी भीगी हुई आवाज आई- "छोटू ! भाई ! मैं हूँ न... चल अब तू सम्भल...।" वह न सिर्फ मुझे ही सहारा दे रही थी; बल्कि उसने पापा की अर्थी का भार भी अपने कंधे पर ले लिया था। आज दीदी की दोहरी भूमिका मुझे समझ आ रही थी।
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@ टीकेश्वर सिन्हा "गब्दीवाला"
घोटिया-बालोद (छत्तीसगढ़)
सम्पर्क : 9753269282.
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