आइये प्रपोज़ करें
अनंत ब्रह्माण्डों तक फैले हुए
अपने ही ईश्वर को।
जो जनक है प्रेम का।
आइये प्रपोज़ करें
अपनी ही आकाशगंगा को।
जिसकी संरचना में
कहीं-न-कहीं हम सभी ढले हैं।
आइये प्रपोज़ करें
अपने ही सूर्य को।
रोशन कर देता है जो
तन-मन-आत्मा भी।
आइये प्रपोज़ करें
अपनी ही पृथ्वी को।
क्या कुछ नहीं देती जो,
ज़रूरत है क्या गिनाने की?
आइये प्रपोज़ करें
खेतों में उग रही अपनी ही फसल को।
हमारा प्रेम पा
देखना कैसी खिलखिलाएगी!
आइये प्रपोज़ करें
अपने ही माता-पिता को।
इस भौतिक जीवन का
पहला प्रेम भी तो इन्हीं से पाया है।
आइये प्रपोज़ करें
अपनी ही संतानों को।
जिन्हें दुनिया में आते ही पहले ही क्षण से
हम प्रेम करते हैं।
आइये प्रपोज़ करें
अपने हर साथी को।
न होते वो तो हो जाते हम भी
किसी राह में अकेले।
आइये प्रपोज़ करें
अपने हर बैरी को।
जो हमें सिखा देते हैं
कितने ही लाइफ लेसन्स।
आइये प्रपोज़ करें
अपने ही तन को।
जिसने बहुत प्रेम से
हमें रहने को जगह दी।
आइये प्रपोज़ करें
अपने हर ऑर्गन को।
बिना जिनके
हम हो जाते हैं अधूरे।
आइये प्रपोज़ करें
अपने ही मन को।
जो उत्साहित करता है
जीवन जीने को।
आइये प्रपोज़ करें
अपनी ही आत्मा को।
जो प्राण होकर भी
सबसे सूक्ष्म है।
आइये प्रपोज़ करें
अपने ही जीवन को।
हम हैं जो आज
क्योंकि यह है।
आइये प्रपोज़ करें
अपनी ही मृत्यु को।
जो सैंकड़ों बार नज़दीक आकर भी
मिलती है सिर्फ एक ही बार,
वक़्त आने पर।
आइये सबसे प्रेम करें,
अपनी आत्मा - अपने खुद से लेकर
अनंत विस्तारित अपनी हर शय से
डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
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