संजय की कविताएं

 अभिशाप


मैं तुमसे जब भी मिली
धरती और आकाश की तरह मिली

जैसे टूट कर मिलते हैं ग्रह-नक्षत्र
अनुभूति की आकाश-गंगा में!

सोचा,
मेरी ही कोख से जन्म लेंगी किसी दिन
सदियों की लुप्त वनस्पतियाँ
खिलेंगे दुर्भिक्ष में भी फूल
भर आएँगे 
सूखी नदियों में जल
और पथरायी आँखों मे भी होगा सपनों का हरापन।

हमारे होने का पूरा मतलब
बहुत जरूरी है उन चीजों के बारे में सोचना
जैसे प्रेम का पूरा मतलब 
एक पूरी कविता
अपनी आत्मा तक उतरने का
एक मात्र मार्ग
एक आवेग
जहाँ जिद्द से शुरू होता है जीवन
और कभी खत्म नहीं होता।

मेरा प्रेम
सशंकित था अपने समय से 
फिर भी जिसके लिए संभव 
अनुभूतियों की वह असंभव कल्पना
जाने किस पीड़ा से विस्फारित
एक रोज विस्मित हुई अपनी ही स्त्री के वक्तव्य से 
मैंने लगभग आत्म-संवाद की मुद्रा में तब कहा खुद से 
कि मैंने किस निर्लज्ज समय को जना अपनी कोख से
कि मैं खुद लज्जित हूँ!


दुर्भाग्य

मधुराक्षरों में कितना  भी लिखा जाए
सच तो यही है कि सदियों से हमारा इतिहास 
स्त्रियों के प्रति अनुदार रहा है
जबकि स्त्रियाँ नहीं होतीं, तो यह सृष्टि नहीं होती
दुनिया के सबसे हसीन सपने स्त्रियाँ देखती हैं
सबसे पवित्र लोरी वही गा सकती हैं
दूध स्त्रियों के सीने से निकलता है जैसे पानी धरती से
फिर नागफनी के जंगलों से क्यों घिरा है उनका जीवन?
ऊँच -नीच की हजारों अनर्गल दीवारें केवल स्त्रियों के लिए क्यों?/हर कहीं असुरक्षित हैं स्त्रियाँ
किसी तवील रास्ते को अकेले पार करना तो 
और भी कठिन है उनके लिए
बीच में कहीं स्कूटर पंक्चर हो जाए
तो आज भी घर नहीं लौट पातीं हैं स्त्रियाँ।

कहना नहीं होगा
कि मर्दवादी व्यवस्था में बस एक उत्पाद हैं स्त्रियाँ
साबुन, सर्फ, फरफ्यूम और फाउडर की तरह।
बेचती हुईं और बिकती हुईं आधी आबादी का लाॅलीपाॅप
संसद में अपारित बिल की तरह 
जिंदगी की रस्सी पर लटकी हुईं
भविष्य के आसन्न खतरों से लबे-जान।

सोचता हूँ अगर स्त्रियाँ नहीं होतीं, 
तो प्रेम कितना उदास होता
कुछ लोग आज जो कवि हैं 
शायद उतने नामचीन कवि नहीं होते
फूल, तितली,बादल,चिड़िया,मोर, नदी,पेड़,पहाड़ 
यूँ ही अलहदा रहते /इतने सुंदर नही होते
कविता में उन्हें कोई पूछता भी नहीं
शब्दों के पंख इतने चमकीले नहीं होते 
फिर यह दुनिया कितनी कुरूप हो जाती ।

हमेशा से
सेवा और त्याग का पर्याय
स्त्रियों ने प्रेम को जितना कुछ दिया
उतना कवियों ने नहीं।
रूप, रस ,अलंकार, छंद, लय सब
स्त्रियों के माध्यम से आया कविता में
अकेले कवि क्या कर लेता वियोग हो कि संयोग
कवि को कवि बनाया स्त्रियों ने।
फिर भी इतना छूँछा क्यों है स्त्रियों का जीवन?
अखबार के हर पेज पर औंधी गिरती हुई उनकी पोज  
क्या कहती है अपने समय से?
अंधी सभ्यता की आँखों में कब आएगी रौशनी
कि वक्त के आईने में  उन्हें सही-सही देखा जाए?
कब तक प्रतीक्षा करेंगी स्त्रियाँ?
कब निर्भय होगी यह दुनिया?
ताजा अखबार की कतरनों में
चंद रंगीन छलावों के बीच कल क्या लिखा होगा?

संजय कुमार सिंह,
प्रिंसिपल पूर्णिया महिला काॅलेज पूर्णिया-854301
9431867283



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