(लघुकथा)
मृदुल ने ऑफिस से आकर बैग सोफे पर पटक दिया।
शालू -"आज तुम्हारा मूड खराब क्यों है?"
"बोस की तानाशाही अब सहन नहीं कर सकता"।
"हुआ क्या है? यह तो बताओ?"
"मुझे हमेशा कम समय में ज्यादा काम की उम्मीद लगातार कर दबाव बनाते रहते है।आज कुछ ज्यादा ही खटपट हो गई है,इसलिए नौकरी छोड़ आया हूँ।"
शालू -"तुम चिंता ना करो,
मेरी नौकरी है ना।
फिर तुम्हारी भी कहीं न कहीं लग जाएगी।"
अगले दिन से नई नौकरी की तलाश शुरु हो गई।कुछ दिन ऐसे ही निकल गए।
एक दिन बाजार में रोशन मिला।पूछ रहा था नौकरी मिली कि नहीं? उदास मृदुल बोला-
"नहीं यार अभी कहाँ?
इस कठिन दौर में नौकरी मिलना मुश्किल है,प्रयास तो कर ही रहा हूँ।"
घर में नौकरी नहीं मिलने से खिटपिट शुरू हो गई थी ।
शालू का धैर्य अब जवाब दे चुका था।उसने मृदुल को कह दिया-
'अपनी अलग व्यवस्था कर लो
मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकती।"
"क्या कह रही हो?
पागल तो नहीं हो गई।'
"सही सुना है तुमने
कब तक तुम घर में ऐसे निकम्मे बैठे रहोगे?
आज 3 माह होने आए
कोई छोटा मोटा कार्य ही शुरू कर दो।"
तीन दिन बाद मृदुल राकेश के घर रहने लगा।
कुछ समय बाद उसे सकारात्मक जवाब आने लगे।एक बहुत बड़ी कंपनी में उसे बुलावा है।
पुनः उसकी नौकरी लग गई
रहने के लिए घर गाड़ी दोनों मिल गए।बस शालू की कमी थी।
दिन प्रतिदिन खलने लगता था।
उधर शालू की ज्यादा घाटे के कारण कंपनी बंद हो गई।
इससे शालू की नौकरी जाती रही।
सब्जी खरीदते समय राकेश मिला।उसने बताया -"मृदुल की बड़ी कंपनी में जॉब है, अच्छा पैकेज है,तुम रिक्वेस्ट करोगी
तो तुम्हें भी वहाँ नौकरी मिल सकती है।"
सुबह मृदुल के घर की घंटी बजती है, सामने शालू थी।
"तुम कैसे सुबह-सुबह"! शालू ने शांति से कहा-
"मृदुल मुझे क्षमा करो,
धैर्य नहीं रहने के कारण
मैं तुम पर गुस्सा हो गई।
क्या हम फिर से साथ नहीं रह सकते?"मृदुल मुस्करा दिया।
दूर खड़ा राकेश पुनर्मिलन से प्रसन्न था।
स्वरचित ,अप्रकाशित लघुकथा
डॉ. प्रणव देवेन्द्र श्रोत्रिय
शिक्षाविद, लेखक
इंदौर,मध्यप्रदेश
09424885189
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