“आओ बसंत...
तुम आये,तो
यादों का कलश
छलछला उठा
छोटी-बड़ी
खट्टी-मीठी
तीखी-चरपरी यादें
बिखर उठीं
ऐसा लगा मानो
मन के भीतर कई
बगीचे लहक उठे
मानो बसंत
आत्मसात हो उठा
तुम उन पीले फूलों की भांति महके
जिन पर प्रेम के भँवरे
मंडराने को उत्सुक
तुम उस बसंती बयार जैसे लहके
जिसमे मन
अधपकी गेहुँ
की बालियों
जैसा झूमा
और तन चहचहाते पक्षियों
जैसे घोंसला बनाने को
आतुर
तुम
तितली से चपल
जंगल में नाचते मोर
ऋतुराज
कोयल की मीठी कूक
खेतों में पगुराई
पीली सरसों
और मन में बसे
बहार हो
तो तुम, बस ! ऐसे ही
बसंत रहना
मन में बस कर
अनंत रहना !
शशि किरन
दिल्ली एन सी आर
8860184809
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