कविता- नारी हूँ।


सृष्टि की सुंदर रचना हूँ ,

कोई प्रवंचना नहीं नारी हूँ ।

लक्ष्मी-दुर्गा सज्जनों के लिए,

दुष्टों हेतु दहकती चिंगारी हूँ ।

सुंदर, कोमल काया की धनी,

सद्गुणों के मिश्रण से हूँ बनी ।

चूड़ी और पायल की खनक,

है व्यक्तित्व में एक चमक ।

मैं कोई दया की पात्र नहीं,

सजावटी वस्तु मात्र नहीं।

अटल हौसलों से भरी हूँ ,

आगे बढ़ने से कब डरी हूँ?

मेरे जन्म पर जो होते दुखी,

ऐसे कबुद्धि वालों को क्या कहूँ?

अपने अंश को जो वंश न समझे,

उसको भी मैं अपना ही समझूँ।

आँचल-सी कभी लहराती हूँ,

फूलों-सी मैं मुस्कुराती हूँ ।

अपनी वाणी के जादू से ,

मुश्किलों में धीरज बँधाती हूँ ।

भावनाओं में बह जाती हूँ,

पर सीमा में ही रहती हूँ ।

ज़िंदगी की धूप-छांव में ,

अपना हर फ़र्ज़ निभाती हूँ ।

बाहर से हूँ कोमल भले,

पर आँधियों से टकराती हूँ ।

चार-दिवारी में क़ैद बेचारी नहीं,

मैं उड़ने की अधिकारी हूँ ।

जीवन के आदर्शों पर चलकर,

काँटों में राह बनाती हूँ ।


- सीमा रानी मिश्रा

हिसार, हरियाणा



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