'योग' शब्द संस्कृत 'यूज्' धातु से बना है
जिसका अर्थ होता है जुड़ना।
जीव का शिव के साथ
या आत्मा का परमात्मा के साथ जुड़ना अर्थात् योग।
श्रीमद् भगवद् गीता के दूसरे अध्याय में
योग की परिभाषा देते हुए कहा गया है-
"समत्वम् योग उच्यते।"
अर्थात् समता ही योग है।
जीवन में हम राग-द्वेष, प्रेम-घृणा,
जय-पराजय के चक्कर में पड़कर
कभी सुख और कभी दुःख का अनुभव करते हैं
लेकिन इन सबके बीच
समता को बनाए रखना ही योग है।
योग अर्थात्
मन की वृत्तियों को स्थिर और नियंत्रित करना।
योग के कुल आठ अंग हैं,
जिन्हें दो भागों में विभाजित किया गया है-
बहिरंग और अंतरंग।
यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार
योग के बहिरंग माने जाते हैं।
इनका संबंध स्थूल शरीर से है।
ध्यान, धारणा, और समाधि
योग के अंतरंग माने जाते हैं।
इनका संबंध सूक्ष्म शरीर से है।
यम अर्थात्
मन, वचन कर्म से दूसरों को आहत न करना।
दूसरों के दिल को ना दुखाना।
यम में सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य,
और अपरिग्रह शामिल है।
सत्य अर्थात् झूठ ना बोलना।
अहिंसा अर्थात् मन, वचन और कर्म से
किसी की आत्मा को दुःख ना देना।
अस्तेय अर्थात् शारीरिक और मानसिक रूप से
शुद्ध व्यवहार करना और ब्रह्मचर्य का चिंतन करना।
अपरिग्रह अर्थात् जरूरत से ज्यादा
चीज वस्तुओं का संग्रह ना करना।
नियम अर्थात् पांच व्यक्तिगत नैतिकता।
सौच अर्थात् शरीर और मन की शुद्धि।
संतोष अर्थात् संतुष्टि और प्रसन्नता का भाव।
तप अर्थात् 'स्व' पर नियंत्रण करना।
आत्म चिंतन अर्थात्
खुद का चिंतन और मनन करना
और ईश्वर प्रणिधान अर्थात्
ईश्वर के प्रति समर्पण भाव रखना।
आसन अर्थात् मन और शरीर को
स्थिर करने वाली विशिष्ट प्रकार की शारीरिक स्थिति।
आसन से शरीर और मन स्वस्थ रहते हैं।
प्राणायाम अर्थात् श्वासोच्छवास की मूल प्रक्रिया।
प्राणायाम से मन पर काबू किया जा सकता है।
प्रत्याहार अर्थात् बाह्य और आंतरिक
उद्दीपकों की ओर से मन को हटाना।
धारणा अर्थात् मन की स्थिरता।
धारणा में व्यक्ति को अपने मन को शांत कर
निरंतर लंबे समय तक
किसी एक विषय या वस्तु पर
ध्यान को केंद्रित करने का प्रयत्न करना होता है।
ध्यान अर्थात् किसी एक उद्दीपक पर
मन को केंद्रित करना।
केंद्रीकरण करने से धीरे-धीरे ध्यान
जिस पर केंद्रित किया गया है वह उद्दीपक
और ध्यान करने वाले के बीच
एक होने का भाव पैदा होता है।
समाधि अर्थात् ध्यान करने वाले और
ध्यान के उद्दीपक के बीच का एकीकरण।
जहां मन के सारे क्लेश समाप्त हो जाते हैं
और मन नीरव हो जाता हैं
उसे समाधि कहते हैं।
अष्टांग योग का यह अंतिम चरण है।
धारणा में किसी एक विषय पर
ध्यान को केंद्रित करने का
प्रयत्न करना होता है।
इसलिए ध्यान की
शुरुआत की अवस्था ही है धारणा।
धीरे-धीरे चित्त एकाग्र होने लगता है
उस अवस्था को ध्यान कहते हैं।
इस प्रकार धारणा से भी ध्यान में
एकाग्रता और गहनता ज़्यादा होती है।
अंत में समाधि में ध्याता, ध्यान और ध्येय
तीनों का भेद नष्ट हो जाता है।
चित्त बिल्कुल शांत हो जाता है
और परम शांति का अनुभव होता है।
इस अवस्था को ध्यान की
सर्वोच्च अवस्था कहते हैं।
इस अवस्था में व्यक्ति को
समस्त ब्रह्मांड की एकता, सर्वव्यापकता,
परम शांति
और परमानंद का अनुभव होता है।
भारतीय दर्शन शास्त्र के अनुसार
ध्यान की इस चरम सीमा से
प्राप्त होने वाला परमानंद
विश्व के तमाम प्रकार के आनंदो में
श्रेष्ठतम और उच्चतम आनंद है
और इस आनंद का अनुभव करना ही
मानव जीवन का परम लक्ष्य है।
समीर ललितचंद्र उपाध्याय
मनहर पार्क:96/A
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