फिर क्यों कर कविगण करते हैं इन पर व्यंग्य विचित्र-ओम जी मिश्र

यहाँ सती,सावित्री, सीता, अनुसुइया थीं मित्र।
शक्ति स्वरूपा जगदम्बा के हमने देखे चित्र।।

माँ, भगिनी, भार्या, पुत्री भी,
 नारी का ही रूप,
ज्यों होती प्रातः बेला में,
सदा सुनहरी धूप।
सृष्टि स्वरूपा ये होती हैं, सबसे सदा पवित्र।।
यहाँ सती सावित्री सीता----------

 क्यों करते संकीर्ण सोचवश,
 नारी का अपमान,
पुरुषों ने क्यों समझ रखी है,
 इसमें अपनी शान।
आज आप जो करते हैं कल सीखेंगे दौहित्र।।
यहाँ सती सावित्री सीता----------

वह सम्पत्ति न, सहगामी हैं,
जीवन का आधार,
मर्यादा के बन्धन में भी,
हैं उन्मुक्त विचार,
फिर क्यों कर कविगण करते हैं इन पर व्यंग्य विचित्र।।
यहाँ सती सावित्री सीता----------

गिरगिट जैसे रंग बदलता,
 है यह पुरुष समाज,
बस नारी निन्दा में ही वह,
पुलकित होता आज।
वही काम यदि नारि करे तो कहते 'त्रिया-चरित्र'।।
यहाँ सती सावित्री सीता----------

ओम जी मिश्र 'अभिनव
लखनऊ, उत्‍तर प्रदेश



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